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- अब औकात से बढक़र नहीं

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By: divyahimachal
हिमाचल को अपने कद के फायदे और नुकसान के भीतर सामंजस्य बनाने की जरूरत को अंगीकार करते हुए शासन, सुशासन व अनुशासन के अलावा राष्ट्रीय संदर्भों में अपनी वकालत करनी होगी, वरना देश की राजनीति हमेशा की तरह नसीबों वाली नहीं होगी। यह हम डबल इंजन सरकारों के मुहावरे में देख चुके हैं, तो राष्ट्रीय नीतियों में पहाड़ की जिल्लत सह चुके हैं। विशाल पंजाब से निकले हरियाणा और आधे हिमाचल की किस्मत का बंटवारा भी अलग-अलग पैमानों पर हुआ और यही वजह है कि आज भी हक की लड़ाई, हमें ही मजबूर बना देती है। जिस पंजाब की राजस्थान से समझौते की वजह पंजाबियत रही, वही पौंग बांध समझौतेकी जद में आकर हिमाचल उदास है। श्री गंगानगर की जमीनों को नहरी अव्वल बनाने वाले हिमाचल के हिस्से का संताप आज भी नहीं समझा गया। केंद्र सीधे राजस्थान की रेत पर अपना राजनीतिक घर बनाने के लिए कृत संकल्प है, लेकिन जिस जमीन को हिमाचल की आहुतियों ने हराभरा बनाया, उसके लिए भी उपेक्षा हमारी हो रही। वाटर सेस के मसले पर जैसे हिमाचल ने पड़ोसी राज्य पंजाब और हरियाणा को अशांत कर दिया हो, जबकि असलियत यह है कि इन दोनों राज्यों की खुशहाली में हिमाचल के प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक शांति और प्रदेश की सौहार्दपूर्ण उदारता सदैव सहयोगी रही है। पंजाब व जम्मू-कश्मीर की हर अशांति ने हिमाचल की भी परीक्षाएं ली हैं और यही इस समय भी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर प्रदेश को अग्रिम मोर्चे पर लगा देती हैं।
ऐसे में कब तक हिमाचल छोटा बनकर अपने बड़े संकल्प निर्धारित कर सकता है। एक बार नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शांता कुमार के आग्रह पर बिजली उत्पादन पर मुफ्त की बिजली का रायलटी फार्मूला माना था, तो दूसरी बार औद्योगिक पैकेज के तहत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उदारता दिखाई थी। यह छोटे पर्वतीय प्रदेश के कद की ही पड़ताल नहीं, बल्कि आसपास व पूर्वोत्तर राज्यों की अशांति के सामने हमारी शांति के खिलाफ केंद्र का सियासी नजरिया रहा है। अतीत के उन्हीं अनुभवों से सीखते हुए हिमाचल को अपनी स्वतंत्र और आत्मनिर्भरता की ओर प्रदत्त आर्थिक नीति की ओर अग्रसर होना होगा। अगर राष्ट्र अब तक हिमाचल को इसके कद के अनुरूप आंक रहा है, तो राज्य को भी अपने पैमाने तय करके निर्णायक होना होगा। यानी इतने छोटे से राज्य के लिए कितना सार्थक ढांचा चाहिए और अब सवाल कार्यशीलता व ढांचागत प्रासंगिकता का है। कई दशकों से हिमाचल की सरकारों ने ऐसे दबाव खुद पर रख लिए हैं, जो राज्य के कद या हैसियत से ऊपर हंै। मसलन आठ चिकित्सा संस्थानों से अब अगर लगभग साढ़े आठ सौ डाक्टर भी हर साल निकलेंगे, तो इन्हें हिमाचल की औकात से कैसे भविष्य की आशा में बदल सकते हैं। इसी तरह हर कालेज को स्नातकोत्तर बनाकर हिमाचल ने यह साबित कर दिया है कि यह सब डिग्रियों का खेल तमाशा है। औकात से आगे इंजीनियर व एमबीए पैदा करके हिमाचल शिक्षा का ऐसा उत्पादक हो सकता है जो किसी भी बच्चे को डिग्रीधारक बना सकता है, लेकिन डर यह है कि राष्ट्र के सामने ऐसी उपलब्धियां शर्मिंदा होकर खुद को कोस रही होती हैं। आश्चर्य यह कि कोई भी सरकार न आर्थिक और न ही प्रशासनिक सुधारों के प्रति जवाबदेह बन रही है, नतीजतन सियासी फैसलों की कीमत चुकाते-चुकाते राज्य न तो अपने छोटे कद का फायदा उठाकर सुशासन को प्रतिबिंबित कर पा रहा है और न ही वित्तीय फांस से बाहर निकल पा रहा है। बेशक हम प्रगतिशील हैं और निजी रूप से साधन संपन्न नागरिक भी हैं, लेकिन यही तरक्की सरकारी खजाने को लावारिस बना रही है। क्या प्रदेश की इतनी हैसियत है कि टैक्स फ्री बजट बना कर सदा-सदा जनता को मुफ्तखोरी की आदत में पाल पाएगा। क्या घाटे के बस डिपो की संख्या बढ़ा कर हिमाचल परिवहन व्यवस्था सुधार पाया। हमारे पास ज्यादा से ज्यादा कमाऊ बस स्टैंड होने चाहिएं, लेकिन हम इनके बजाय नए बस डिपो खोलकर बसों पर पेंट करते रह गए। कद से ज्यादा कर्मचारी-अधिकारी संख्या दिखाकर भी अधिकांश संस्थान अगर खाली पदों पर चल रहे हैं, तो कार्यालयों की तादाद बढ़ा कर मिला क्या। आठ चिकित्सा संस्थानों ने कितने सामान्य अस्पतालों और स्वास्थ्य प्राथमिकताओं का बेड़ा गर्क किया, यह कब सोचेंगे। सरकारें आती जाती रहेंगी और नित नए बोर्ड लगाकर अपने इरादों की खिदमत करती रहेंगी, लेकिन हिमाचल कब सीखेगा कि उसे चादर देखकर पांव पसारने होंगे।

Rani Sahu
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