सम्पादकीय

नेहरू-गांधी परिवार को चाहे जितना बुरा बताने के प्रयास किए जाए, लोकप्रिय संस्कृति से उन्हें ओझल कर पाना असम्भव

Gulabi Jagat
2 April 2022 8:23 AM GMT
नेहरू-गांधी परिवार को चाहे जितना बुरा बताने के प्रयास किए जाए, लोकप्रिय संस्कृति से उन्हें ओझल कर पाना असम्भव
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आज भले ही नेहरू को भारत के इतिहास से बेदखल करने की चाहे जितनी कोशिशें की जा रही हों
कावेरी बामजेई का कॉलम:
नई ब्लॉकबस्टर फिल्म 'आरआरआर' में एक जोशीला देशभक्तिपूर्ण गीत है- 'शोले'। इसमें देश के महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों की एक परेड दिखलाई जाती है, जिसमें भगत सिंह से लेकर सुभाषचंद्र बोस, छत्रपति शिवाजी से लेकर वल्लभभाई पटेल तक शामिल हैं। लेकिन महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू कहीं दिखलाई नहीं देते। लेकिन यह परिपाटी से उलट है।
आज भले ही नेहरू को भारत के इतिहास से बेदखल करने की चाहे जितनी कोशिशें की जा रही हों, बॉलीवुड बायोपिक्स और पीरियड फिल्मों में नई रुचि लेता नजर आ रहा है और रुपहले परदे पर दिखलाने के लिए नेहरू और इंदिरा गांधी सबसे पसंदीदा चेहरे बने हुए हैं।
बात चाहे 'राधे श्याम' की हो, जिसमें हाथ देखने वाला नायक मिसेज गांधी से कहता है कि वे जल्द ही आपातकाल की घोषणा करने जा रही हैं (इस फिल्म का कालखण्ड 1975 है और यह भविष्यवाणी सुनकर मिसेज गांधी चकित रह जाती हैं) या 'रॉकेट बॉय्ज' की, जिसमें यह दिखाया जाता है कि स्वतंत्र भारत में वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए नेहरू ने कितना काम किया था- नेहरू-गांधी परिवार अभी तक लोकप्रिय संस्कृति से बेदखल नहीं हुआ है। और हां, विरले ही उन्हें खलचरित्रों की तरह दिखाया जाता है।
'गंगूबाई काठियावाड़ी' का ही उदाहरण ले लीजिए। जब कमाठीपुरा के एक चकलाघर की संचालिका नेहरू से देह-व्यापार को वैध करने की बात कहती हैं तो वे उन्हें बड़े सम्मान से सुनते हैं। 'बेलबॉटम' में, रॉ के जासूस अक्षय कुमार सीधे लौह-महिला और उनके प्रिय रणनीतिक सलाहकार से निर्देश लेते हैं। फिल्म में उन्हें शक्तिशाली, आक्रामक और निडर नेत्री के रूप में दिखाया गया है। यहां तक कि 'थलाइवी' में भी, इंदिरा गांधी को जयललिता से लम्बी और मैत्रीपूर्ण चर्चा करते दिखलाया गया है।
बाद में तमिलनाडु के उद्भव में राजीव गांधी की भी मुख्य भूमिका दिखाई गई है। भारत को वास्तविक आजादी 2014 में मिली, ऐसा मानने वाली कंगना रनोट भी सच्चाई को झुठला नहीं सकी हैं। और जहां फिल्मकार किसी कारणवश इतिहास से दृश्यों की पुनर्रचना नहीं कर सकते- जैसे कि बीबीसी की सीरिज 'अ स्युटेबल बॉय' में, जहां स्वतंत्र भारत के पहले चुनावों के दौरान नेहरू दो काल्पनिक निर्वाचन-क्षेत्रों बैतर और सलीमपुर की यात्रा एक काल्पनिक प्रत्याशी महेश कपूर के लिए चुनाव-प्रचार के लिए करते हैं- वहां वे डॉक्यूमेंट्री फुटेज का इस्तेमाल कर सकते हैं।
विक्रम सेठ की किताब पर आधारित इस सीरिज में नेहरू को 62 वर्ष की अवस्था के बावजूद बहुत युवा दिखलाया गया है। वे कपूर से मिलते हैं और कहते हैं- 'मुझे बतलाया गया था कि यहां हम जीत नहीं सकते, इसलिए यहां आने का फायदा नहीं, लेकिन इस बात ने मुझे यहां आने के लिए और दृढ़ बना दिया।' 'अ स्युटेबल बॉय' की निर्देशक मीरा नायर अपनी आगामी फिल्म में देश के पहले प्रधानमंत्री को और प्रमुखता से दिखलाने जा रही हैं। यह फिल्म चित्रकार अमृता शेरगिल के जीवन पर आधारित होगी।
यशोधरा डालमिया के द्वारा लिखी गई अमृता की जीवनी में वर्णन है कि अमृता सोचती थीं नेहरू इतने सुदर्शन हैं कि उन्हें चित्रित किया ही नहीं जा सकता। अमृता और नेहरू के बीच पत्र-व्यवहार भी हुआ था, लेकिन जब अमृता विवाह करके बूदापेस्त चली गईं तो दुर्भाग्यवश उनके माता-पिता ने नेहरू के अनेक पत्रों को नष्ट कर दिया। नेटफ्लिक्स पर 'क्राउन' में नेहरू के एडविना से प्रेम-संबंध की ओर संकेत किया गया है, वहीं गुरिंदर चड्‌ढा की 'वायसरॉय्ज हाउस' में प्रथम प्रधानमंत्री के अनेक आयाम प्रदर्शित हैं।
आज नेहरू-गांधी परिवार को चाहे जितना स्वेच्छाचारी और भ्रष्ट बतलाने के प्रयास किए जाएं, लोकप्रिय संस्कृति से उन्हें ओझल कर पाना असम्भव ही साबित होगा। ये सच है कि दूसरे राष्ट्रनायकों के योगदान को भी इतना ही स्वीकारा जाना चाहिए, जैसे कि नागराज मंजुले की फिल्म 'झुंड' में बीआर आम्बेडकर को दिखलाया गया है। यह पहली बार है, जब मुख्यधारा की किसी फिल्म में आम्बेडकर को महानायक की तरह प्रदर्शित किया गया है।
दूसरी तरफ वीडी सावरकर पर बनाई जा रही एक फिल्म में रणदीप हुड्‌डा को मुख्य भूमिका में लिया गया है। मेघना गुलजार की फिल्म 'सैम बहादुर' सैम मानेकशॉ पर केंद्रित है, वहीं श्याम बेनेगल 'मुजीब' नामक फिल्म बना रहे हैं। यकीनन, इन दोनों फिल्मों में भी मिसेज गांधी मुख्य भूमिका में होंगी। आज नेहरू-गांधी परिवार को चाहे जितना बुरा बताने के प्रयास किए जाएं, लोकप्रिय संस्कृति से उन्हें ओझल कर पाना असम्भव ही होगा। हां, दूसरे राष्ट्रनायकों के योगदान को भी स्वीकारा जाना चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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