सम्पादकीय

निंदा नहीं समादर

Subhi
26 Aug 2022 5:35 AM GMT
निंदा नहीं समादर
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एलोपैथी चिकित्सकों के खिलाफ बोलने पर बाबा रामदेव को अदालत की नसीहत। बाबा रामदेव को अपने तंग विचारों में लचीलापन लाना ही होगा। माना कि वे योग को श्रेष्ठ बताते हैं। योग का बहुत महत्त्व है।

Written by जनसत्ता: एलोपैथी चिकित्सकों के खिलाफ बोलने पर बाबा रामदेव को अदालत की नसीहत। बाबा रामदेव को अपने तंग विचारों में लचीलापन लाना ही होगा। माना कि वे योग को श्रेष्ठ बताते हैं। योग का बहुत महत्त्व है। मगर समय के साथ जो वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, उन्हें भी महत्त्व देना चाहिए। इसमें कई पद्धतियां जुड़ी हैं, जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी आदि।

इन्हें अनुसंधान, प्राचीन ग्रंथों आदि का गहन अध्ययन करके तैयार किया गया है। इनमें जो जनोपयोगी विधियां बताई गई हैं, वे सरल और सुलभ हैं। उनके परिश्रम, उनकी वैचारिक दृष्टि को निरर्थक न साबित होने दें, क्योंकि उनके साथ आस्था और श्रद्धा भी जुड़ा है। कोई भी पैथी बुरी नहीं है। सबका उद्देश्य निरोगी काया और मानव कल्याण ही है।

इक्कीसवीं सदी में भी हम जाति, धर्म के नाम पर मरने-कटने को तैयार हैं। देश की संपदा बिकने की परवाह नहीं है, तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है। विष्णु पद मंदिर गया में सूबे के सीएम और पर्यटन मंत्री चले गए। पर्यटन मंत्री मुसलिम समुदाय से हैं। मंदिर में लिखा हुआ था कि अहिंदू प्रवेश निषेध। हमारे संविधान के अनुच्छेद 25 में लिखा है कि किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक स्थल पर जा सकता है। अब सवाल है कि क्या देश पोथी पतरा से चलेगा या संविधान से? नूपुर शर्मा के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इन्हीं लोगों ने 'सुप्रीम कोठा' कह कर न्यायपालिका को अपमानित किया था।

जिन परंपराओं से मानवता आहत होती है, उसे तोड़ देना चाहिए। अगर अंग्रेजों ने सती प्रथा का उन्मूलन न किया होता तो आज भी स्त्री जलाई जाती और कोई इसका विरोध करता तो सनातन धर्म खतरे में बताया जाता। बेरोजगारी, महंगाई से मानवता खतरे में है, यह कहते शर्म आ रही है, लेकिन भोले-भाले लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर राजनीति की रोटी सेंकने में मजा आ रहा है।

अब देशभक्त, क्रांतिकारी आदि नाम से संगठन बना कर युवाओं को कट्टर बनाने की साजिश रची जाती है और अपने बच्चे को विदेशों में अच्छी शिक्षा लेने के लिए भेज दिया है। क्यों न उसे पोथी-पतरा बांचने के लिए दे देते। उन्हें मालूम है कि यह पढ़ कर लोगों को सिर्फ ठगा जा सकता है, जज, हाकिम, कलक्टर नहीं बन सकते।

संपादकीय 'दमन का रास्ता' (24 अगस्त ) अत्यंत विचारोत्तेजक है। इसमें पुलिस के दमन का जिक्र बिल्कुल सही है। मगर इसके साथ यह भी सही है कि हमारी पुलिस सरकार के इशारों पर काम करती है। पटना में जो कुछ हुआ, वह इस तथ्य का ताजा सबूत है। कल तक जिन मांगों का समर्थन तेजस्वी यादव किया करते थे, आज उनकी सरकार में वही मांगें शासन-विरोधी हो चुकी हैं।

आपने पुलिस के प्रशिक्षण पर भी सवाल उठाया है, लेकिन यह पूरी तरह उचित नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम राज्यों और केंद्र में देख रहे हैं, पुलिस अधिकतर मौजूदा सरकार के हिसाब से ही काम करती है। इन सारी परिस्थितियों का सार यही है कि सरकारों को हमेशा जनता की जायज मांगों और जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए और समय पर जनता की समस्याओं का समाधान करना चाहिए।

आजकल सत्ता पाने के बाद अक्सर जनता की वास्तविक जरूरतों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, उसकी मांगों का समय पर निराकरण नहीं किया जाता और समस्या के समाधान में अत्यधिक विलंब पर अगर जनता उत्तेजित होकर आंदोलन का रास्ता अपनाती है तो दमन का सहारा लिया जाता है। इस हालत में सरकारों को अपने कामकाज में सुधार लाने की आवश्यकता है।


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