- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- चौथी बार 'नीतीश
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। बिहार में लगातार चौथी बार मुख्यमन्त्री का पद संभालने वाले श्री नीतीश कुमार ने प्रादेशिक राजनीति के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में भी एक नया कीर्तिमान इस मायने में बना दिया है कि उन्होंने अपने गठबन्धन के शासन के खिलाफ उपजे सत्ता विरोधी आक्रोश को परे धकेलने में सफलता प्राप्त की है। बेशक इस बार की उनकी जीत में केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है मगर चुनावों में नीतीश बाबू के चेहरे को ही रखा गया था और घोषणा की गई थी कि गठबन्धन के जीतने पर वही पुनः मुख्यमन्त्री बनेंगे। अभी तक प. बंगाल में कांग्रेस पार्टी के श्री बिधानचन्द्र राय व मार्क्सवादी पार्टी के नेता स्व. ज्योति बसु के नाम ही ऐसा रिकार्ड रहा है। यह भी पूरी तरह सही है कि इस बार बिहार के सत्तारूढ़ गठबन्धन की विजय बहुत ज्यादा प्रभावशाली नहीं रही है औऱ यह 243 सदस्यीय विधानसभा में केवल 125 सीटें ही ला पाया है जबकि विपक्षी महागठबन्धन को 110 सीटों पर विजय मिली है परन्तु 15 साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद इस जीत का आंकलन कम करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि विपक्षी गठबन्धन को भी चुनावों में एन डी ए के बराबर ही 38 प्रतिशत मत मिले हैं। यह भी हकीकत है कि इन चुनावों में नीतीश बाबू की पार्टी जनता दल (यू) की लोकप्रियता घटी है और इसे मात्र 43 सीटें ही मिली हैं जबकि इसके सहयोगी दल भाजपा को 74 सीटें मिली हैं, जबकि दोनों ही पार्टियों ने लगभग बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा था इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि नीतीश बाबू की लोकप्रियता घटी है परन्तु उनकी नेतृत्व क्षमता में न तो भाजपा का विश्वास घटा है औऱ न ही उनके अपने दल का। यदि गौर से देखा जाये तो नीतीश कुमार के खिलाफ महागठबन्धन की ओर से मुख्यमन्त्री पद के दावेदार के रूप में उतारे गये तेजस्वी यादव का राजनैतिक कद भी उनसे कमतर करके आंका जा रहा था। इसकी वजह उनका लम्बा राजनैतिक अनुभव ही था। यह भी सच है कि चुनावों के आगाज से ही भाजपा को आशंका थी कि नीतीश बाबू की लोकप्रियता घट रही है जिसकी वजह से उसने एनडीए के पूरे चुनाव प्रचार को अपने हाथ में लेते हुए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को कवच बना कर ये चुनाव लड़े औऱ श्री मोदी ने भी पूरे एनडीए के प्रत्याशियों को वोट देने की अपील की। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार भाजपा की यह रणनीति कारगर हुई जिसकी वजह से नीतीश बाबू की वे गल्तियां सतह पर आते हुए हल्की पड़ गई जो उन्होंने प्रवासी मजदूरों व बाढ़ का प्रकोप समाप्त करने के बारे में की थीं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि एनडीए के अन्य सहयोगी अन्य क्षेत्रीय दलों को भी इन चुनावों मे अच्छी सफलता मिली है। श्री जीतनराम मांझी की 'हम' पार्टी भी चार सीटें जीत गई है, जबकि राज्य की अन्य सभी क्षेत्रीय पार्टियां धराशायी रही हैं। दर असल इसका श्रेय भी भाजपा को दिया जा सकता है क्योंकि स्वयं प्रधानमन्त्री ने इन सहयोगी क्षेत्रीय दलों के प्रत्याशियों के लिए चुनाव प्रचार किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि पूरे चुनाव एनडीए ने भाजपा के भरोसे ही जीते हैं, मगर महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा ने नीतीश बाबू के नेतृत्व में ही नई सरकार गठन करने का फैसला उनकी पार्टी की ताकत घट जाने के बावजूद किया है। इससे नीतीश बाबू की नेतृत्व क्षमता का अन्दाजा होता है। राजनीति में इसे नैतिकता का परिचायक भी माना जा सकता है क्योंकि 2010 में जब नीतीश बाबू की पार्टी जद(यू) के अपने बूते पर ही 120 विधायक जीत कर आ गये थे तो उन्होंने तब भी भाजपा को सरकार में हिस्सेदारी दी थी और घोषणा की थी कि यह सरकार एनडीए की ही सरकार होगी। इसी प्रकार केन्द्र में स्वय श्री मोदी की सरकार का भी उदाहरण दिया जा सकता है क्योंकि भाजपा के लोकसभा में 303 सांसद जीत कर आये थे परन्तु उन्होंने लोजपा के स्व. राम विलास पासवान औऱ अकाली दल की हर सिमरत कौर और शिवसेना के नेताओं को मन्त्रिमंडल में शामिल किया था। अपने बूते पर पूर्ण बहुमत होने के बावजूद भाजपा ने अपने चुनाव पूर्व सहयोगियों को सरकार में शामिल करना जरूरी समझा। हालांकि शिवसेना बहुत पहले एनडीए से अलग हो गई औऱ अकाली दल ने पिछले दिनों ही किसानों के मुद्दे पर एन डी ए छोड़ दिया। गठबन्धन की राजनीति के अफने कुछ नियम और सिद्धान्त होते हैं जिनका पालन राजनैतिक दलों को करना पड़ता है। अतः नीतीश बाबू को चौथी बार मुख्यमन्त्री बनाकर भाजपा अपने गठबन्धन धर्म का पालन ही करेगी इसके साथ ही कुछ राजनैतिक मजबूरी भी होती है। सभी को मालूम है कि 2015 का विधानसबा का चुनाव नीतीश बाबू ने लालू जी के साथ हाथ मिला कर लड़ा था मगर वह साल भर बाद ही उनसे हाथ झाड़ कर भाजपा से आकर मिल गये थे और सभी मतभेद भूल गये थे। भाजपा इस हकीकत को कैसे भूल सकती है ? अतः नीतीश बाबू आराम से अगले पांच साल तक मुख्यमन्त्री बने रह सकते हैं मगर इस बार राह थोड़ी कठिन जरूर होगी क्योंकि चुनावों में विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने राज्य के युवा वर्ग की आकांक्षाओं को नये पर लगा दिये हैं। खास कर रोजगार के मुद्दे पर उन्हें खाली पड़े पदों पर बहाली करनी पड़ेगी औऱ शिक्षा व चिकित्सा तन्त्र को मजबूत बनाना होगा। चार बड़े काम अपने चोथे कार्यकाल में नीतीश बाबू को करने होंगे, पढाई, दवाई, कमाई औऱ सिंचाई जो कि विपक्षी नेता तेजस्वी बाबू का चुनावी एजेंडा था। यह काम तभी हो सकता है जब बिहार में सार्वजनिक व निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाये।