सम्पादकीय

सियासी दांव में लालू यादव पर भारी पड़ रहे नीतीश कुमार

Gulabi
30 Dec 2021 8:42 AM GMT
सियासी दांव में लालू यादव पर भारी पड़ रहे नीतीश कुमार
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बिहार विधानसभा चुनाव में कम सीटें मिलने और बहुमत की डोर कमजोर होने के बाजूद नीतीश कुमार अपने सियासी दांव में लालू यादव
बिहार विधानसभा चुनाव में कम सीटें मिलने और बहुमत की डोर कमजोर होने के बाजूद नीतीश कुमार अपने सियासी दांव में लालू यादव पर भारी पड़ रहे हैं. सरकार बनाने के करीब खड़े आरजेडी की अगुवआई वाले महागठबंधन के सपनों पर पानी फेरने में नीतीश कुमार कामयाब रहे हैं. विपक्ष के हाथ आए मुद्दों को अपने अनुकूल बना कर उसे बैरंग बना देना कोई नीतीश कुमार से सीखे.
जातीय जनगणना की मांग को आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने अपना बड़ा हथियार बनाना चाहा. नीतीश ने इस पर सर्वदलीय बैठक बुला कर अपनी सहमति तो जता ही दी. साथ ही, प्रधानमंत्री से मिलने गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी के एक प्रतिनिधि को शामिल करा कर विपक्ष का मुद्दा झटक लिया. इसी तरह, जब नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कई मानकों पर बिहार की खस्ताहाली का जिक्र किया तो बिहार को विशेष दर्जे की मांग कर नीतीश ने विपक्ष की बोलती पहले ही बंद कर दी.
उल्टे विपक्ष को नीतीश की हां में हां मिलानी पड़ी. शराबबंदी पर नीतीश सरकार की आलोचना करने वाले बीजेपी नेताओं और बात-बात में मुंह बिचकाने वाले दो सहयोगी दलों- वीआईपी और हम के चार-चार विधायकों को अपने राजनीतिक कौशल से नीतीश ने अब तक साधे रखा है. नीतीश जानते हैं कि इन दो दलों की उनकी सरकार के लिए अहमियत क्या है. इसलिए कि सरकार के लिए बहुमत के जो जादुई आंकड़े हैं, उनमें इन दोनों दलों के 8 विधायकों का समर्थन मायने रखता है.
यही वे दोनों दल हैं, जिनके प्रमुख कई बार अपनी उलटबासियों से यह भ्रम पैदा करते हैं कि नीतीश सरकार अब गई, तब गई. आरजेडी की बांछें इससे खिलती रही हैं. इनको अपने पाले में करने के लिए आरजेडी ने जितनी मशक्कत की, वह जगजाहिर है.
राजनीतिक विश्लेषकों भी नीतीश चकमा देते रहे हैं. जो लोग यह मान कर चल रहे थे कि नीतीश कुमार जातीय जनगणना, बिहार को विशेष दर्जा की मांग और अपने प्रमुख सहयोगी दल बीजेपी के व्यवहार से आहत होकर नया सियासी समीकरण बना सकते हैं, उन्हें आश्चर्य होता है कि इन मुद्दों पर मुखर होकर नीतीश ने सत्ता का सपना देखने वाले आरजेडी को कितनी आसानी से मुद्दाविहीन बना दिया.
दरअसल, केंद्र की भाजपा नीि‍त एनडीए सरकार के निर्णय के खिलाफ बोल कर नीतीश ने यह भ्रम पैदा कर दिया था कि अब भाजपा से उनके रिश्ते अंतिम दर में हैं. वे भाजपा से किनारा करने के बहाने ढूढ रहे हैं. यह भ्रम पैदा होना इसलिए भी स्वाभाविक था कि नीतीश पूर्व में ऐसा करते रहे हैं. विपक्ष भी इसे हवा देने में लग गया था. जातीय जनगणना और विशेष दर्जा के दो बिंदुओं पर समूचा विपक्ष नीतीश कुमार के साथ खड़ा हो गया. दबी जुबान नीतीश को भाजपा से अलग होकर विपक्ष के साथ खड़ा होने के आफर भी आने लगे थे.
वैसे, वर्ष 2015 में उन्होंने भाजपा के छोड़ कर आरजेडी और कांग्रेस के साथ बने महागठबंधन का चुनाव लड़ा और सरकार बनाई. यह अलग बात है कि आरजेडी का साथ उन्हें ज्यादा दिन तक रास नहीं आया और महज 17 महीनों तक चली महागठबंधन की गांठ खुल गई. फिर उन्हें भाजपा ने ही साथ देकर उबारा और उन्होंने एनडीए की सरकार बनाई. 2015 के पूर्व यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ दिया था. उन्हें इस बात की नाराजगी थी कि नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने अपना पीएम फेस घोषित कर दिया था. नरेंद्र मोदी से उनकी नाराजगी का आलम अतीत में ऐसा रहा कि गुजरात के सीएम रहते उन्होंने बिहार के बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ जब आर्थिक मदद भेजी तो नीतीश ने लेने से मना कर दिया.
एनडीए के साथ रहते हुए भी उन्होंने भाजपा के प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी के बिहार न आने की शर्त रख दी थी. यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी ने उसे भुला दिया और 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को बीजेपी से कम सीटें मिलने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने का एक और अवसर दे दिया.
यह अलग बात है कि बीजेपी के पास नीतीश कुमार का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार के पास बीजेपी से अलग होने के विकल्प होते हुए भी वह कोई हड़बड़ी नहीं करेंगे. जिस तरह आरजेडी मुद्दों पर नीतीश कुमार के साथ खड़ा दिखता है और उसकी ओर से बार-बार ऐसे संकेत मिलते रहे हैं कि नीतीश बीजेपी का साथ छोड़ दें तो घाटे में नहीं रहेंगे, उससे तो यही लगता है कि नीतीश के पास विकल्प हैं.
हाल के दिनों में बिहार में दो ऐसे ज्वलंत मुद्दे उभरे हैं, जिन पर नीतीश के साथ पूरा विपक्ष खड़ा हो गया है. भाजपा अकेली पड़ गई है. पहला मुद्दा जातीय जनगणना का है. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने लगातार इसकी मांग की और अंततः नीतीश कुमार को अपनी इस मांग के साथ जोड़ने में वे कामयाब भी हो गए. चूंकि यह मुद्दा केंद्र सरकार से जुड़ा है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के मिलने का समय नीतीश ने मांगा.
प्रतिनिधिमंडल में नुमाइंदा के तौर पर बीजेपी से भी एक विधायक शामिल हुए, लेकिन श्रेय नीतीश को ही गया. यह सर्वविदित है कि केंद्र इसके लिए तैयार नहीं है. केंद्र सरकार तकनीकी दिक्कतें बता चुकी है. इसलिए नीतीश ने कह दिया कि केंद्र जातीय जनगणना न भी कराये तो उनकी सरकार अपने बूते बिहार में कराएगी.
नीतीश कुमार बिहार के तेज विकास के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग 2015 से ही कर रहे हैं. बीच में यह मांग शिथिल पड़ गई थी. हाल ही में जब नीति आयोग ने शिक्षा, स्वास्थ जैसे मामलों में बिहार की खस्ताहाली का जिक्र अपनी रिपोर्ट में किया तो पहले नीतीश ने इसे कबूल करने से ही इनकार कर दिया. बाद में उन्होंने विशेष राज्य की अपनी पुरानी मांग उठा दी. इस मुद्दे पर भी भाजपा अलग-थलग पड़ गई और नीतीश के सुर में आरजेडी समेत पूरा विपक्ष सुर मिलाने लगा. एकबारगी लगा कि बिहार एनडीए अब बिखर ही जाएगा.
इसी बीच, जेडीयू कोटे से केंद्र में मंत्री बने आरसीपी सिंह ने यह कह कर स्थिति साफ कर दी कि योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बिहार विशेष दर्जे का हकदार है, लेकिन विशेष राज्यों के हकदार राज्यों की कतार में बिहार से ऊपर ओड़िशा है. विशेष राज्य की बात आएगी भी तो पहले ओड़िशा का नंबर होगा, तब बिहार का. यानी नीतीश ने यह जानते हुए भी विशेष राज्य की मांग उठायी, ताकि विपक्ष को मुद्दाविहीन कर सकें.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ओम प्रकाश अश्क
प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.
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