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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐसा लग रहा है कि बिहार को पुलिस राज में तब्दील करने की ठान ली। पिछले साल हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह जाने के बावजूद नीतीश कुमार भाजपा की कृपा से मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन वे बिहार के लोगों से अपनी हार का बदला लेने की ठान बैठे हैं। हालांकि वे तीसरे नंबर की पार्टी बनने के बावजूद हारे नहीं हैं। अपने विरोधी राजद गठबंधन के प्रत्यक्ष और अपने सहयोगी भाजपा के परोक्ष विरोध के बावजूद वे 43 सीट ले आए तो यह उनकी जीत ही थी।
यह उनकी पुण्यता थी, जो लोगों ने उन्हें इतने वोट दिए कि भाजपा की शह पर उनकी पार्टी जदयू के खिलाफ लड़ रहे चिराग पासवान के छह फीसदी वोट काटने के बावजूद नीतीश की पार्टी 43 सीट जीती। यह नीतीश की पुण्यता थी, जिस पर भाजपा को वोट मिले और वह 74 सीट जीती वरना भाजपा अपने दम पर चुनाव लड़ कर 2015 में देख चुकी थी। तभी हैरानी है कि चार दशक की सक्रिय राजनीति से अपनी एक छवि बनाने और पुण्यता अर्जित करने वाले नीतीश कुमार क्यों उसे गंवाने पर तुले हुए हैं?
भाजपा के प्रति उनका गुस्सा समझ में आता है और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उस गुस्से को पी जाने की मजबूरी भी समझ में आती है पर बिहार को पुलिस राज में बदलने की मजबूरी समझ में नहीं आ रही है। यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि जिस बिहार की जनता ने उन्हें इतना समर्थन दिया वे उससे बदला क्यों लेना चाहते हैं! पिछले साल नवंबर में मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी सरकार ने जिस किस्म के फैसले किए हैं या जैसे आदेश दिए हैं, वह बिहार को पुलिस राज बनाने वाले हैं। इसके लिए वे बिहार पुलिस को ऐसे अधिकार दे रहे हैं, जिससे वे केंद्रीय सशस्त्र बलों की तरह सक्षम हो जाएं। इसके लिए बिहार पुलिस कानून का विधेयक लाया गया और जोर जबरदस्ती विधानमंडल से पास कराया गया। इस क्रम में बिहार विधानसभा के सदस्यों की जम कर पिटाई हुई।
यह संभवतः पहला मौका था, जब सदन के अंदर और बिहार विधायकों को लातों-घूसों से पीटा गया। आमतौर पर किसी भी सदन के अंदर चुने हुए विधायक हंगामा करते हैं तो मार्शल के जरिए उनको सदन से बाहर निकाला जाता है। संसद में भी कई बार ऐसा हुआ है कि मार्शल के जरिए सांसदों को बाहर निकाला गया। ये मार्शल सदन की पुलिस होते हैं। सांसदों या विधायकों को निकालने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। बाहर से पुलिस नहीं बुलाई जाती है। पर पुलिस विधेयक का विरोध कर रहे विधायकों को बाहर निकालने के लिए अतिरिक्त पुलिस बल बुलाया गया और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान भी बुलाए गए। अनेक वीडियो ऐसा वायरल हो रहे हैं, जिसमें साफ दिख रहा है कि पुलिस के जवान विधायकों की पिटाई कर रहे हैं। एक वीडियो में तो विपक्ष के एक विधायक को सादे कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति पीट रहा है। यह पता नहीं चल सका है कि वह सत्तापक्ष का गुंडा था या सादे कपड़े में कोई पुलिस वाला!
इस एक घटना ने नीतीश कुमार के पढ़े-लिखे, लोकतांत्रिक और उदार नेता होने की छवि पर इतना बड़ा धब्बा लगाया है, जितना आजाद भारत के इतिहास में किसी दूसरे मुख्यमंत्री के ऊपर नहीं लगा होगा। इस घटना के बाद वे विपक्ष पर चाहे जो भी आरोप लगाएं पर इतिहास में सर्वाधिक कलंकित मुख्यमंत्री के तौर पर उनका नाम दर्ज होगा। उन्होंने सदन की गरिमा को तार-तार किया है या होने दिया है। उन्होंने चुने हुए प्रतिनिधियों के सम्मान को चोट पहुंचाई है। जैसे आजादी की लड़ाई के दौरान लाला लाजपत राय के शरीर पर पड़ी लाठी की चोट को सरदार भगत सिंह ने अंग्रेजी शासन की ताबूत की आखिरी कील बताया था उस तरह विपक्ष के विधायकों पर सदन में पड़ी हर चोट लोकतंत्र के ताबूत में कील की तरह है। नीतीश कुमार अब इतिहास में इसके लिए जाने जाएंगे। अगर वे चाहते हैं कि उनकी दशकों की बनाई पुण्यता खत्म नहीं हो तो उन्हें तत्काल तमाम विधायकों से माफी मांगनी चाहिए, उस दिन की घटना का प्रायश्चित करना चाहिए और पुलिस वालों पर कार्रवाई करनी चाहिए।
अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो एक नई मिसाल बनेगी, जो लोकतंत्र के लिए बेहद घातक होगी। फिर जिसकी सरकार होगी वह सदन के अंदर पुलिस बुलवाएगा, दंगा रोधी फोर्स बुलवाएगा, चुने हुए प्रतिनिधियों को पिटवाएगा और इस तरह पुलिस राज कायम करेगा। नीतीश कुमार पुलिस को अतिरिक्त अधिकार देने के लिए जो कानून बना रहे हैं वह कानून भी अंततः लोकतंत्र के ताबूत में कील ही साबित होगा। वैसे उनकी सरकार के लोग कह रहे हैं कि दो या तीन और राज्यों में पुलिस को इस तरह के अधिकार दिए गए हैं पर अगर दो या तीन राज्यों ने कोई गलत काम किया है तो उस आधार पर दूसरे को गलती करने का न अधिकार मिलता है और न गलती को नैतिक समर्थन मिलता है।
बिहार पुलिस कानून के तहत यह प्रावधान किया गया है कि पुलिस बिना वारंट के किसी की तलाशी ले सकती है और अगर पुलिस को किसी व्यक्ति को लेकर यह भरोसा हो जाए कि वह किसी अपराध में शामिल है तो उसे गिरफ्तार भी कर सकती है। सोचें, बिना वारंट के तलाशी का अधिकार और पुलिस के अपने जजमेंट के आधार पर किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार राज्य को कैसे पुलिस स्टेट में तब्दील करेगा!
इससे पहले सरकार में आने के थोड़े दिन बाद ही बिहार पुलिस मुख्यालय से यह आदेश जारी हुआ कि मुख्यमंत्री, सरकार के मंत्री और राज्य सरकार के अधिकारियों के खिलाफ सोशल मीडिया में आपत्तिजनक पोस्ट लिखने पर पुलिस कार्रवाई होगी। इसमें आपत्तिजनक की कोई परिभाषा नहीं है, वह पुलिस ही तय करेगी कि क्या आपत्तिजनक है। हो सकता है कि आप सरकार के किसी मंत्री के खिलाफ टिप्पणी करें या किसी अधिकारी के व्यवहार पर सवाल उठाएं और उसे आपत्तिजनक मान कर आपको जेल में डाल दिया जाए। यह सही है कि इस समय पूरे देश में लोगों को बोलने की आजादी पर पाबंदी लगाई जा रही है पर बिहार में नीतीश कुमार की सरकार जैसा आदेश किसी ने नहीं दिया।
इसके बाद उनकी सरकार ने एक दूसरा आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि आंदोलन में शामिल होने वालों को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। वैसे तो बिहार कोई सरकारी नौकरी किसी को नहीं मिल रही है पर व्यवहार में इस आदेश के अमल से ज्यादा इस आदेश की भावना को समझने की जरूरत है। खुद जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकले नीतीश कुमार जैसे नेता की सरकार नौजवानों को आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए ऐसे आदेश जारी करे तो लोकतंत्र के भविष्य को लेकर निश्चित रूप से चिंता होती है।
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