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- नीतीश बाबू और विपक्षी...
आदित्य चोपड़ा; बिहार के मुख्यमन्त्री व जनता दल (यू) नेता श्री नीतीश कुमार आजकल विपक्षी एकता के अभियान पर निकले हुए हैं। वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में इस अभियान की सार्थकता तभी हो सकती है जब राष्ट्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दल भाजपा के विरुद्ध कोई संयुक्त राजनैतिक विमर्श खड़ा करें। केवल मोदी विरोध विपक्ष का कोई एजेंडा नहीं हो सकता और न ही भाजपा विरोध कोई राजनैतिक सिद्धान्त विपक्ष की परस्पर विरोधी वैचारिक स्थिति को देखते हुए हो सकता है । क्योंकि स्वतन्त्र भारत का इतिहास बताता है कि 1967 के बाद जब कांग्रेस विरोध के नाम पर विभिन्न विचारधारा वाले राजनैतिक दल इकट्ठा हुए थे तो आपसी टकराव में ही बहुत जल्दी बिखर गये थे। मगर तब विपक्षी दलों का लक्ष्य दूसरा था। इसके पीछे समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया का यह विचार था कि देश की जनता को यह बताने की जरूरत है कि विपक्षी दलों में भी सत्ता करने का सऊर है। इसे देखते हुए 1967 में जनसंघ (भाजपा) व कम्युनिस्ट भी नौ राज्यों में बनी गैर कांग्रेसी सरकारों में शामिल हो गये थे मगर यह प्रयोग पूरी तरह असफल रहा था। इसके बाद 1977 में इमरजेंसी व इन्दिरा विरोध के नाम पर विभिन्न विचारधारा वाले दलों ने मिल कर एक जनता पार्टी बनाई और केन्द्र में सत्ता में आने पर सफलता भी प्राप्त की। मगर दो साल के भीतर ही जनता पार्टी किसी सन्तरें की फांकों की तरह अलग- अलग बंट गई और इसमें शामिल सभी पार्टियों ने पुनः अपनी अलग-अलग दुकानें जमा लीं। मगर इससे निकली भाजपा इसके बाद अपने रास्ते पर डटी रही और अपना पृथक स्वतन्त्र अस्तित्व कायम करके हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धान्त को पकड़े रही। 1989 में पुनः कांग्रेस से विद्रोह करके स्व. विश्व नाथ प्रताप सिंह ने उत्तर भारत के मध्यमार्गी राजनैतिक दलों को इकट्ठा करके गैर भाजपा व गैर कांग्रेसी पार्टियों का भानुमति का कुनबा जोड़ा और उसे जनता दल नाम देकर भाजपा की मदद से केन्द्र में सरकार गठित की मगर यह कुनबा 11 महीने बाद ही बिखरने लगा और जनता दल के इतने टुकड़े हुए कि कर्नाटक समेत उत्तर भारत के हर राज्य का अपना अलग जनता दल हो गया। मगर 1989 में जनता दल 160 से कुछ अधिक सीटें ही जीत पाया था जबकि कांग्रेस पार्टी की दो सौ से अधिक सीटें आयी थीं। इसके बावजूद इस पार्टी के तत्कालीन नेता स्व. राजीव गांधी ने सरकार बनाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस विरोधी लगभग सभी राजनैतिक दलों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल को समर्थन दे दिया था । मगर 11 महीने के भीतर ही यह सरकार गिर गई थी क्योंकि जनता दल स्व. चन्द्रशेखर के नेतृत्व में टूट गया था। इसके बाद छह महीने के लिए स्व. चन्द्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के समर्थन से सरकार चली और उनके इस्तीफा देने के बाद देश में नये लोकसभा चुनाव 1991 में हुए जिसमें पुनः कांग्रेस पार्टी सबसे अधिक 220 से सीटें लेकर जीतीं और इसकी सरकार छोटे- छोटे दलों व द्रमुक के समर्थन से पूरे पांच साल चली। इसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं कि किस प्रकार 1996 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और इसकी केवल 13 दिन ही सरकार चली और तब जाकर विभिन्न गैर भाजपा व गैर कांग्रेसी दलों का संयुक्त राष्ट्रीय मोर्चा बना और 1998 तक केन्द्र में संयुक्त राष्ट्रीय मोर्चे की सरकारें कांग्रेस के समर्थन से चलीं। कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने पर जब सरकार गिरी तो 1998 में पुनः लोकसभा चुनाव हुए जिसमें भाजपा पुनः सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी मगर इस बार इसे कांग्रेस व कम्युनिस्टों को छोड़ कर शेष सभी प्रमुख दलों का समर्थन मिला। इसके बावजूद आपसी खींचतान के चलते यह सरकार केवल 13 महीने में ही एक वोट से गिर गई। पुनः चुनाव हुए और इस बार भाजपा के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चे को बहुमत के करीब पहुंचने में ज्यादा कठिनाई नहीं हुई क्योंकि कई छोटे दलों ने इसे बाहर से समर्थन दिया जिनमें आन्ध्र प्रदेश की तेलगूदेशम प्रमुख पार्टी थी। इस सरकार ने अपना पांच साल का पूरा कार्यकाल पूरा किया। इसके पीछे प्रमुख कारण यह था कि तब कांग्रेस के लोकसभा में सदस्य केवल सौ से कुछ ज्यादा ही थे। मगर 2004 में हुए लोकसभा चुनावों में बाजी पलट गई और कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। 2009 के चुनावों में कांग्रेस की दो सौ से भी ऊपर सीटें आयीं और इसके नेतृत्व में बने यूपीए की सरकार 2014 तक चली। परन्तु इसी वर्ष हुए चुनावों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया और श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ जिसमें 2019 के चुनावों में और इजाफा हुआ। मगर इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस को क्रमशः 44 व 52 सीटें मिलीं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि आज नीतीश कुमार विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले यह समझना होगा कि यह कार्य आज भी केवल कांग्रेस के नेतृत्व में ही संभव हो सकता है भले ही इस पार्टी की हालत आज दुबली है। नीतीश बाबू इस जन अवधारणा को नहीं बदल सकते कि राज करने के मामले में कांग्रेस की अपनी विशिष्ट छवि है। मगर विपक्ष में कई दल हैं जो कांग्रेस के नेतृत्व को तो छोड़िये इसे विपक्षी एकता में गिनने के लिए भी तैयार नहीं हैं। यह समझना जरूरी है कि आजादी के बाद से ही इस देश में जनसंघ (भाजपा) व कांग्रेस स्वाभाविक पार्टियां हैं। इसकी वजह से धुर सिद्धान्त विरोधी होना है। कम्युनिस्टों को छोड़ कर व जनसंघ के अलावा सभी अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस से ही निकले हैं।