सम्पादकीय

नीस अटैकः धर्म और आतंकवाद

Gulabi
2 Nov 2020 4:53 AM GMT
नीस अटैकः धर्म और आतंकवाद
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फ्रांस पिछले कुछ सालों से इस्लामी आतंकवादी तत्वों के निशाने पर है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। फ्रांस पिछले कुछ सालों से इस्लामी आतंकवादी तत्वों के निशाने पर है। क्लास में कथित तौर पर पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने की वजह से एक स्टूडेंट द्वारा टीचर की हत्या किए जाने के कुछ ही समय बाद जिस तरह से चर्च में घुसकर एक बुजुर्ग महिला समेत तीन लोगों की चाकुओं से गोदकर हत्या की गई, वह पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। लेकिन इन दोनों घटनाओं के बाद भी जहां फ्रांस ने आतंकी तत्वों का मुकाबला करने और अपने उदार जीवन मूल्यों की हर हाल में रक्षा करने का संकल्प जताया, वहीं दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में फ्रांस के प्रति सहानुभूति के बजाय धार्मिक भावनाओं के आधार पर विभाजन दिखाई देने लगा। खासकर एशिया के मुस्लिम बहुल

लाकों में फ्रांस के खिलाफ प्रदर्शन हुए जिनमें फ्रांसीसी राष्ट्रपति के खिलाफ गुस्सा प्रकट किया गया। इस्लाम से जुड़े मसलों पर दुनिया भर में प्रदर्शन पहले भी होते रहे हैं, इस बार खास बात यह है कि इन कट्टर धार्मिक भावनाओं को कुछ राष्ट्राध्यक्षों और राजनेताओं का स्पष्ट समर्थन प्राप्त हुआ।

घृणित और निर्मम हत्याओं के संदर्भ में भी तुर्की और पाकिस्तान के शासनाध्यक्षों ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति के बयान को ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा बताया है। हालांकि फ्रांस ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रखने की बात कही, लेकिन उसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि वह आतंकवाद की आड़ में इस्लाम को निशाना बना रहा है। इसी व्याख्या के सहारे मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद ने यहां तक कह दिया कि मुसलमानों को यह अधिकार है कि वे फ्रांसीसियों को दंडित करें, उनकी हत्या करें। साफ है कि यह महज कुछ आम लोगों के भावावेश में आ जाने का मामला नहीं है। यह विभिन्न देशों के बीच बन रहे नए तरह के शक्ति संतुलन का संकेत है। जब से तुर्की ने इस्लामी दुनिया का नेतृत्व सऊदी अरब से छीन कर अपने हाथों में लेने का मन बनाया है, तभी से इस्लाम से जुड़े मसलों में उसकी प्रो-एक्टिव भूमिका दिखने लगी है। उसी भूमिका का एक रूप कश्मीर मामले में उसके अटपटे बयान भी हैं। ऐसे बयानों से तुर्की को अंततः कितना फायदा होगा और उसका कद बढ़ेगा या और घट जाएगा, यह अलग सवाल है।

फिलहाल गौर करने की बात यह है कि पहली बार इस्लामी आतंकवाद को किसी देश और राष्ट्राध्यक्ष का समर्थन मिलता दिख रहा है। अपने चरम उत्कर्ष के दौर में भी आतंकवाद नॉन स्टेट एक्टर्स के ही हाथों में रहा। कुछ देशों पर इसे समर्थन देने या इसके खिलाफ प्रभावी कदम न उठाने के आरोप भले लगते रहे हों, कोई राष्ट्राध्यक्ष खुलकर इनके पक्ष में नहीं आया था। अगर इस बार ऐसा होता दिख रहा है तो इन देशों की विवेकशील आवाजों को आगे आकर इन्हें संयत रखने का प्रयास करना चाहिए। वरना क्या पता, अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिए गए आतंकवाद का एक और दौर दुनिया को झेलना पड़ जाए।

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