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यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने गुजरे सप्ताह भर्राई आवाज में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर आप युद्ध नहीं रोक सकते
शशि शेखर
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने गुजरे सप्ताह भर्राई आवाज में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए कहा, 'अगर आप युद्ध नहीं रोक सकते, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को भंग कर देना चाहिए...।' यह पहला मौका नहीं है, जब संयुक्त राष्ट्र बेलगाम महाशक्तियों के सामने बौना साबित हुआ है। क्या हमें नई विश्व व्यवस्था की दरकार है?
हम जानते हैं कि दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया सही राह पर चले, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था, पर अंदर दो विचारधाराओं में वर्चस्व की लड़ाई जारी रही। दुनिया उसे शीतयुद्ध के नाम से जानती है।
पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश इतिहासकार प्रोफेसर इश्तियाक अहमद ने लिखा है कि मई, 1947 में ब्रिटिश रॉयल आर्मी और रॉयल नेवी के प्रमुखों के साथ जीते-जी किंवदंती बन चुके जनरल मोंटगुमरी ने बैठक की। इस मुलाकात के बाद इन शीर्ष सेनानायकों ने ब्रिटिश नीति-नियंताओं को समझाया कि कांग्रेस के तमाम नेताओं का झुकाव समाजवाद की ओर है। अगर हमने बीच में एक 'बफर स्टेट' न बनाया, तो सोवियत संघ का दबदबा अरब और हिंद महासागर की सीमाओं से जा मिलेगा। इश्तियाक अहमद ने तथ्य और तर्क सहित साबित किया है कि इसी के चलते 3 जून, 1947 को माउंटबेटन ने रेडियो पर विभाजन की आधिकारिक घोषणा के साथ खुलासा किया कि सत्ता-हस्तांतरण का समय पहले खिसकाकर अगस्त, 1947 कर दिया गया है।
अब आप समझ गए होंगे कि पाकिस्तान क्यों पहले दिन से पश्चिम की गोद में जा बैठा था?
इसके उलट भारत ने 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की घोषणा से पहले ही बीच का रास्ता बनाना शुरू कर दिया था। यह सब कुछ चीन द्वारा 'बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव' की घोषणा तक बदस्तूर चलता रहा। इस योजना से नाता जोड़ने के बाद तय हो गया कि पाकिस्तान खुले तौर पर चीन के संरक्षण में चला गया है। बाद में चीनी और रूसी सेना के साथ संयुक्त अभ्यास कर उसने जता दिया कि ब्रिटिश युद्ध नायकों की कुटिल चाल काल-गति का शिकार बन चुकी है।
यही वजह है कि जब इमरान खान अपनी मौजूदा दुर्गति के लिए अमेरिका को कोसते हैं, तब रूस इसे 'शर्मनाक अमेरिकी हरकत' बताता है। उधर, पश्चिम के मुल्क भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करते हैं कि आप रूस से तेल और हथियार खरीदना बंद करें। भारत जब पलकें नहीं झपकाता, तब अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सहायक दलीप सिंह नई दिल्ली में ही दुष्परिणाम भुगतने की चेतावनी दे डालते हैं। बाद में राष्ट्रपति जो बाइडन, वाणिज्य सचिव जीना रैमांडो और रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन चाशनी पगे शब्दों में इसी भाव को दोहराते हैं, लेकिन भारत अविचलित रहता है। क्यों?
पुरानी दोस्ती, कच्चे तेल के दामों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी के बाद रियायत बरतने का रूसी प्रस्ताव, 60 फीसदी सैन्य सामान के लिए मॉस्को पर निर्भरता और मौजूदा सरकार की दृढ़ता इसकी मुख्य वजहें हैं। पिछले ही हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से भेंट कर साफ कर दिया था कि भारत किसी के भी दबाव में आने वाला नहीं है। वह इससे पहले इंग्लैंड की विदेश सचिव या पश्चिमी देशों के अन्य खास नुमाइंदों से मिलने में परहेज बरत गए थे। हालांकि, रूस ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग से निष्कासन के मामले में भारत को दबाव में लेने की कोशिश की, पर हमने पिछली दस बार की तरह खुद को अलग रखा। नई दिल्ली अगर 'उनके' दबाव में नहीं आती, तो भला 'इनके' दबाव में क्यों आए?
ये अमेरिकी ढलान के दिन हैं। अमेरिका तमाम संधियों के जरिये दुनिया और खासकर यूरोप को दशकों से अपने शिकंजे में रखता आया है। लोकतंत्र और उदारीकरण के प्रसार के नाम पर इन देशों ने विकासशील और गरीब देशों को तमाम सपने बेचे। कभी रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन भी इस ख्वाब से प्रभावित थे। पुतिन उन दिनों उनके प्रधानमंत्री हुआ करते थे। यही वजह है कि सत्ता संभालने के बाद से वह बीच का रास्ता अपनाना चाहते थे। सन् 2008 में अमेरिका से उपजी मंदी और उसके महाप्रकोपों ने उनकी आंखें खोलनी शुरू कर दीं। परमाणु जखीरों पर ट्रंप के रवैये और नाटो के निरंतर विस्तार ने रूस को राह बदलने पर मजबूर किया।
क्रीमिया और सीरिया के आक्रमण इसकी मुनादी थे। नाटो ने अगर उन्हें वहीं रोकने में सफलता हासिल कर ली होती, तो बात यहां तक बिगड़ती नहीं। आज यूक्रेन में जो हो रहा है, उससे समूची दुनिया के अमनपसंद बेचैन हैं। बूचा के नरसंहार ने इस कसमसाहट को चरम पर पहुंचा दिया है। अगर स्थिति और अधिक बिगड़ी, तो अंजाम क्या होगा?
जानने वाले जानते हैं, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध का अलाव भी ऐसे ही धीमे-धीमे सुलगा था।
यही वह मुकाम है, जहां से विकासशील मुल्कों का चैन-ओ-करार छिनने लगता है। दूर जाए बिना सिर्फ अपने पड़ोस पर नजर डाल देखिए। पाकिस्तान में खस्ता आर्थिक हालात में इमरान खान नियाजी को दुर्दशा झेलनी पड़ी। श्रीलंका के लोगों का जीना दूभर हो चला है। वहां विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को कुछ समय के लिए आपातकाल लगाना पड़ा। बांग्लादेश में लोग महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। नेपाल भी अस्थिर हो रहा है। भारत में खुला असंतोष नहीं है, पर पेट्रो और खाद्य पदार्थों की महंगाई से लोग बेजार हैं। इसके अलावा चीन सीमा पर दो साल से जारी तनातनी यथावत है।
यही वजह है कि दलीप सिंह धमकाते हैं कि भारत इस मुगालते में न रहे कि यदि चीन ने कोई अमर्यादित हरकत की, तो रूस हिन्दुस्तान के हक-हुकूक के लिए आगे आएगा। झल्लाहट में अनाप-शनाप बोलते वक्त दलीप भूल गए कि 1971 में जब अमेरिका ने नई दिल्ली पर दबाव बनाने के लिए सातवां बेड़ा आगे बढ़ाया था, तब सोवियत संघ ने निषेध का काम किया था। भारत-पाक युद्ध के दौरान उसने 'वीटो' का भी प्रयोग कर मैत्रीभाव जगजाहिर किया था। फिर अमेरिका और नाटो किसका कितना साथ देते हैं, क्षत-विक्षत यूक्रेन उसका जीता-जागता उदाहरण है। बिला शक हमें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत ने अब तक इस समस्या का मुकाबला युक्ति की शक्ति से किया है।
यहीं एक और सवाल उभरता है। 50वें दिन की ओर खिसकता रूस-यूक्रेन युद्ध अगर लंबा खिंचा तो?
सिर्फ डेढ़ माह में इस जंग ने समूची धरती को न केवल दो हिस्सों में बांट दिया है, बल्कि तीसरे महायुद्ध के अंदेशे भी रोप दिए हैं। यह भी तय हो गया है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद जो निजाम बना था, वह जर्जर हो चुका है। अब एक ही रास्ता बचा है, दुनिया के हुक्मरां या तो खुले मन से नई विश्व व्यवस्था की संरचना करें या तीसरे विश्वयुद्ध के लिए तैयार रहें।
Rani Sahu
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