सम्पादकीय

हवा में जहर के नए पैमाने

Rani Sahu
26 Sep 2021 8:17 AM GMT
हवा में जहर के नए पैमाने
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स्वच्छ आबोहवा के लिए तय मौजूदा न्यूनतम मानदंडों का विश्व समुदाय संजीदगी से पालन करता

अनुमिता रॉय चौधरी स्वच्छ आबोहवा के लिए तय मौजूदा न्यूनतम मानदंडों का विश्व समुदाय संजीदगी से पालन करता, उससे पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुरक्षा-मानक कडे़ कर दिए हैं। बुधवार को जारी अपने नए वायु गुणवत्ता दिशा-निर्देशों में संगठन ने सुरक्षित हवा के पैमानों को फिर से निर्धारित किया है। इससे पहले सन् 2005 में इनमें संशोधन किया गया था। नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक, अभी वैश्विक आबादी का 90 फीसदी हिस्सा और भारत में करीब-करीब शत-प्रतिशत लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं, जो डब्ल्यूएचओ के मानक पर खरी नहीं उतरती है।

बहरहाल, इन दिशा-निर्देशों में सबसे अधिक तवज्जो पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), यानी सूक्ष्म कणों को दी गई है। यह दुनिया भर में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। 70 लाख के करीब मौतें अकेले इसी वजह से होती हैं। नए दिशा-निर्देशों में पीएम-2.5 (जिन सूक्ष्म कणों का आकार 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है) की सालाना सीमा 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से घटाकर पांच माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दी गई है। उसके 24 घंटे का औसत भी 25 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से घटाकर 15 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दिया गया है। पीएम-10 (जिन सूक्ष्म कणों का आकार 10 माइक्रोमीटर से कम हो) के लिए भी वार्षिक और 24 घंटे की औसत सीमा में पांच-पांच माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर की कमी की गई है।
मुख्य गैसों के लिए भी दिशा-निर्देशों में संशोधन किया गया है। मसलन, नाइट्रोजन डाई-ऑक्साइड की वार्षिक सीमा 2005 के मुकाबले चार गुना कम कर दी गई है और इसे 40 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से घटाकर 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दिया गया है। इस बार 24 घंटे की गाइडलाइन भी जारी की गई है और इसके लिए 25 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर की सीमा तय की गई है। इसी तरह, ओजोन के लिए आठ घंटे का मानक पूर्ववत 100 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है, लेकिन पीक-सीजन सीमा तय करते हुए इसे 60 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर कर दिया गया है। कार्बन मोनोऑक्साइड का मानक भी पूर्ववत चार माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रखा गया है। हालांकि, यह समझ से परे है कि नए दिशा-निर्देशों में सल्फर डाई-ऑक्साइड के वार्षिक मानक का जिक्र नहीं है, जबकि यह सल्फर-युक्त ईंधन के उपयोग से सीधे-सीधे जुड़ा है। इन ईंधनों में कोयला और अन्य औद्योगिक ईंधन भी शामिल हैं, जो विकासशील मुल्कों में व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाते हैं। हां, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बार पार्टिकुलेट मैटर के अन्य रूपों (जैसे, ब्लैक कार्बन या एलिमेंटल कार्बन, अल्ट्राफाइन पार्टिकल्स और रेत या धूल भरी आंधी से पैदा होने वाले कणों) को लेकर भी दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
इन निर्देशों में इस बात पर जोर दिया गया है कि वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान का जो आकलन पूर्व में किया गया था, अब उससे कहीं ज्यादा नुकसान पहुंच सकता है। इसका अर्थ है कि सभी देश अपने यहां इन जोखिमों को कम करने के उपायों में तेजी लाएं। मगर 'स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट, 2020' बताती है कि वर्ष 2019 में दुनिया के तमाम हिस्सों में वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुत कम या नाममात्र के कार्य हुए। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में तो हालात पूर्ववत खतरनाक हैं। रही बात भारत की, तो नए दिशा-निर्देश भारत के वायु गुणवत्ता मानकों पर पुनर्विचार करने और उनमें तत्काल संशोधन की जरूरत बता रहे हैं। मसलन, पीएम-2.5 के लिए भारत का वार्षिक औसत मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से आठ गुना अधिक है। इसी तरह, 24 घंटे का मानक भी यहां चार गुना ज्यादा 60 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है। जाहिर है, डब्ल्यूएचओ के नए दिशा-निर्देशों ने भारत के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी है, वह भी तब, जब केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भारतीय मानकों की समीक्षा की प्रक्रिया शुरू कर दी है। लिहाजा, इसका जवाब आसान नहीं है कि दक्षिण एशिया और विशेष रूप से भारत पीएम-2.5 के पांच और 15 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के कठिन लक्ष्य को किस तरह से पा सकेगा? विशेषज्ञ मानते हैं कि यहां की मौसम व जलवायु संबंधी परिस्थितियां जटिल हैं, जिनमें धुंध, गगनचुंबी इमारतों व बुनियादी ढांचे की वजह से क्षेत्र-विशेष में बढ़ते तापमान और अत्यधिक प्रदूषण से चुनौतियां बढ़ जाती हैं। आलम यह है कि प्रदूषणकारी गतिविधियों को रोक भी दें, तब भी केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं से हवा में काफी ज्यादा प्राकृतिक कार्बोनिक एरोसोल, यानी सूक्ष्म तरल बूंदों का निर्माण होता है। इन सबके अलावा, विभिन्न स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन और चूल्हे पर खाना पकाने जैसी जीविकोपार्जन प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले प्रदूषण को भी थामने की जरूरत है। सवाल यह है कि प्रदूषण को हम किस हद तक कम कर सकते हैं? फिलहाल तो यही चुनौती है कि देश के तमाम कोनों में राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक हर हाल में लागू किए जाएं। महामारी के दौरान लॉकडाउन में हमने प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी देखी थी, जो स्थानीय प्रदूषण और क्षेत्रीय प्रभावों को कम करने के कारण संभव हो सका था। इससे पता चलता है कि यदि स्थानीय स्तर पर कड़े कदम उठाए जाएं, तो कठिन से कठिन लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है। सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायर्नमेंट (सीएसई) का अध्ययन बताता है कि बेहतर वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा करने वाले दिनों की संख्या 2020 में अच्छी-खासी बढ़ गई थी। भारत में भू-जलवायु का असर भी पड़ता है, जो स्थानीय स्तर पर प्रदूषण का स्तर बढ़ाने का काम करता है। प्रदूषण स्रोतों के तीव्र प्रसार और वायु गुणवत्ता की कमजोर प्रबंधन प्रणालियों के कारण यहां स्थिति गंभीर हो गई है। ऐसे में, वायु की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए हमें क्षेत्रीय नजरिए पर कहीं ज्यादा फोकस करना होगा। लैंसेट का अध्ययन बताता है कि एक लाख की आबादी में मौत के पैमाने पर यदि पड़ताल की जाए, तो पार्टिकुलेट प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य जोखिम कमोबेश पूरे देश में एक समान है। साफ है, अपने यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य एक बड़ा मसला है। हालांकि, इससे अब भी पार पाया जा सकता है, बशर्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, भारत समाज के कमजोर तबकों पर असमानता और असंगत प्रभावों के पड़ने वाले असर को दूर करने की ठोस रणनीति अपनाए।


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