सम्पादकीय

युग चेतना के नए पैमाने

Rani Sahu
6 July 2022 7:06 PM GMT
युग चेतना के नए पैमाने
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आजकल सच अन्धों का हाथी हो गया है साहिब। अन्धों ने हाथी के जिस हिस्से को हाथ लगा लिए, वही वह असली हाथी बता जनसाधारण को आश्वस्त कर रहे हैं

आजकल सच अन्धों का हाथी हो गया है साहिब। अन्धों ने हाथी के जिस हिस्से को हाथ लगा लिए, वही वह असली हाथी बता जनसाधारण को आश्वस्त कर रहे हैं। किसी के लिए हाथी मात्र एक सूंड है, किसी के लिए भारी भरकम पुष्ट भाग और कोई उसकी टांग छू मात्र उसे पुष्ट स्तम्भ बता रहा है। जनाब, यही हाल देश के प्रजातंत्र का हो गया है। उसके अलम्बरदार अपने-अपने हिस्से का खण्डित सत्य उछालते हुए एक-दूसरे पर हावी होने की चेष्टा करते रहे हैं और दूसरे को प्रजातंत्र में प्राप्त अधिकारों के हनन का अपराधी बताते हैं। चुनावों में बाकायदा लोकमत जानने के बाद चुनी हुई सरकार को भी अपनी पूरी अवधि जीने का हक नहीं मिलता। अगर वह अपने सत्ता लोभी स्वनाम-धन्य नेताओं को कुर्सी लोभ से परे नहीं रख पाती। दिन-रात होता है तमाशा मिरे आगे के अन्दाज़ में जनप्रतिनिधि बिकते हैं, पांसा बदल जाते हैं, अच्छा खासा बहुमत अल्पमत में बदल जाता है। यहां हांका और नीलामी सरेआम होती है लेकिन जननायक इसे परिवर्तन, बदलाव और क्रांति का नाम देते हैं। अब तो जनता के हितों की सुरक्षा के चलन्त सूत्र वाक्यों का इस्तेमाल भी नहीं होता बल्कि यही कहा जाता है कि उनके पक्ष की उपेक्षा हो रही थी। इसलिए सत्ता की बाजी पलट दी। यहां क्रांतिवीर के तगमें आसानी से बंट जाते हैं। सत्तारूढ़ नेता ने कुर्सी बचा ली तो वह जनता के हितों का रक्षक सही नेता है। अगर न बचा सका और कुर्सी पर कब्जा बागियों का हो गया तो अब बागी ही परिवर्तन के ध्वजवाहक और जनता के हित रक्षक हैं। आम आदमी तो यह भी नहीं कह सकता कि सत्ता का खेल देखते हुए उसे पौन सदी हो गई। कैसे कह दें कि यह जो पब्लिक है वह सब जानती है।

लेकिन केवल जानने से क्या होता है। जो उनकी आवाज़ बनने का दम भरते थे, वे तो बिकाऊ हो गए। अपने बिकने को वे परिवर्तन युग का नाम दे सकते हैं। जब तक बिकने की यह प्रक्रिया पूरी न हो जाए, उसे तूफान के आने से पहले की शांति भी तो कहते रहिए। देखो, परिवर्तन का बिगुल बज गया। होने वाले परिवर्तन की धमक पंचतारा होटलों के अभिजात प्रतीक्षा गृहों में अटकी है। जब तक ज़ोर आजमाइश नहीं हो जाती, यह वहीं अटकी रहेगी। चाहे कई सप्ताह न लग जाएं। इस प्रतीक्षा के भारी भरकम बिल कौन अदा करेगा? स्पष्ट है वही खाली खजाना। इसमें बेकारों की कार्य योजनाओं, भूखों का पेट भरने, टूटती सड़कों की मरम्मत या महामारी से सुरक्षाकवच प्रदान करने के लिए पैसा नहीं रहता, लेकिन अपने जनप्रतिनिधियों के आरक्षित रखने के लिए पैसा है। नादान लोग सवाल पूछ सकते हैं कि भाई जान जब-जब सत्ता बदलने का यह हांका होता है, यह जनप्रतिनिधि हर नज़दीक के इन पंचतारा आश्रय स्थलों में आरक्षित क्यों कर दिए जाते हैं? क्या वे कोई शिकार हैं कि दूसरा कोई उन्हें खदेड़ कर अपनी मचान तक ले जाएगा? क्या इन लोगों का अपना मन, अपनी सोच या अपना कोई चिन्तन नहीं? जिस ओर सत्ता का पलड़ा भारी हुआ, उसी ओर सबका झुकाव क्यों हो जाता है? राजनीति के आखेट के ये ऐसे प्रश्न हैं कि जिनका कभी कोई उत्तर नहीं मिलता। सरेआम सत्ता की बाजि़यां पलट जाती हैं। लोकमत ने जिस प्रकार के शासन का निर्णय दिया था, वह भुला दिया जाता है। पांसा जिसे मौके के खुदा के हक में बैठे, उसे ही समय का सच और नया युग बोध कह दिया जाता है। युग बोध के ये पैमाने अवसर और अफसर की सुविधानुसार बदल जाते हैं। एक समय समय के मसीहा या उसके भोंपू के समक्ष लोगों की भूख, नौकरी और ज़रूरत सर्वोपरि होती है, तब इनके लिए जो परिवर्तन की मशाल लेकर चले, वही सच्च राष्ट्रनायक है।.
सुरेश सेठ

सोर्स - divyahimachal


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