सम्पादकीय

नई हुकूमत

Subhi
11 April 2022 4:17 AM GMT
नई हुकूमत
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सत्ता में बने रहने के इमरान खान के सारे दांवपेच बेकार साबित हुए। शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में बहुमत खो देने के बाद सरकार गिर गई। तीन सौ बयालीस सदस्यों वाले सदन में अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में एक सौ चौहत्तर वोट पड़े।

Written by जनसत्ता: सत्ता में बने रहने के इमरान खान के सारे दांवपेच बेकार साबित हुए। शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में बहुमत खो देने के बाद सरकार गिर गई। तीन सौ बयालीस सदस्यों वाले सदन में अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में एक सौ चौहत्तर वोट पड़े। इमरान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ के सदस्यों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। हालांकि इसमें नया कुछ नहीं हुआ। अगर अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान पिछले हफ्ते ही करा लिया जाता, तब भी नतीजा यही आना था। पर इमरान खान आखिरी गेंद तक अपनी सत्ता बचाने के लिए जूझते रहे।

पाकिस्तान का यह घटनाक्रम सिर्फ किसी को सत्ता से बेदखल करने और किसी को सत्ता हासिल होने के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए। पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम और खासतौर से हाल के एक हफ्ते की गतिविधियां बता रही हैं कि पाकिस्तान के भीतर दरअसल चल क्या रहा है। सरकार गिराने के लिए इमरान खान और उनकी पार्टी विदेशी ताकतों पर आरोप लगा रही है। सेना ने पूरे राजनीतिक घटनाक्रम से अपने को अलग रखने की बात कही। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि विधायी तंत्र के घटनाक्रम को लेकर देश का सुप्रीम कोर्ट एक सजग प्रहरी के रूप में खड़ा रहा। वरना क्या अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान हो पाता!

जाहिर है, फिलहाल विपक्ष जीत गया है। सत्ता की कमान अब देश के मंजे हुए राजनेता शाहबाज शरीफ के हाथों में आ गई है। वे तीन बार पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और नवाज शरीफ की गैरमौजूदगी में पार्टी की अगुआई करते रहे हैं। फौज से भी उनके अच्छे रिश्ते बताए जाते रहे हैं। हालांकि सैन्य प्रतिष्ठान से रिश्ते तो इमरान खान के भी अच्छे ही थे। इसीलिए यह कहा भी जाता रहा है कि इमरान सेना की मेहरबानी से ही सत्ता में आए थे। लेकिन बाद में आइएसआइ प्रमुख की नियुक्ति को लेकर इमरान और सेना प्रमुख के बीच टकराव सामने आ गया था।

वैसे भी पाकिस्तान का इतिहास यही रहा है कि वहां सेना किसी की सगी नहीं रही। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि शाहबाज भी सत्ता में तभी तक टिकेंगे, जब तक सेना चाहेगी। वैसे भी पाकिस्तान में अगले साल आम चुनाव होने हैं। शाहबाज को सत्ता भले मिल गई हो, पर उनके सामने भी वही मुश्किलें और चुनौतियां हैं जो पाकिस्तान में हर प्रधानमंत्री को विरासत में मिलती रही हैं। महंगाई से मुल्क बेहाल है। अर्थव्यवस्था बेदम है। भ्रष्टाचार चरम पर है। यह नहीं भूलना चाहिए कि शाहबाज भी उन्हीं नवाज शरीफ के भाई हैं जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और पनामा पेपर्स मामले उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। इसके अलावा देश पर लगा आतंकवाद के गढ़ का ठप्पा भी अलग तरह के संकट खड़े किए हुए है। साफ है, शाहबाज की राह में भी कांटे कम नहीं हैं।

पाकिस्तान की राजनीति में उठापटक की पृष्ठभूमि में कारण जो भी रहे हों, लेकिन हाल में अमेरिकी दखल की जो बातें सामने आर्इं, वे सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, दूसरे मुल्कों के लिए भी चिंता पैदा करने वाली हैं। इस साल फरवरी के आखिरी हफ्ते में रूस यात्रा के बाद इमरान खान सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगे थे। इसीलिए इमरान अमेरिका पर अपनी सरकार गिराने की साजिश का आरोप लगाते रहे। बेहतर होगा कि उनके इन आरोपों की निष्पक्ष जांच हो। यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि सेना का रुख हमेशा से अमेरिकापरस्त ही रहा है। किसी भी लिहाज से पाकिस्तान के भविष्य के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता और शांति कैसे कायम हो, यह सिर्फ सरकार को ही नहीं, सेना और सुप्रीम कोर्ट को भी देखना होगा।


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