सम्पादकीय

यूपी में पिछले 3 दशकों से ब्राह्मण वोटों का नया फ़िनोमेना! क्या भगवा मोह छोड़ सकेगी यह जाति

Tara Tandi
1 Aug 2021 1:37 PM GMT
यूपी में पिछले 3 दशकों से ब्राह्मण वोटों का नया फ़िनोमेना! क्या भगवा मोह छोड़ सकेगी यह जाति
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पिछले तीन दशक से एक नया फ़िनोमेना सामने आया है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क |शंभूनाथ शुक्ल | पिछले तीन दशक से एक नया फ़िनोमेना सामने आया है. जैसे ही उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) नियराते हैं, ब्राह्मणों की जातिगत संख्या के आकलन शुरू हो जाते हैं. यह 2005 के बाद से कुछ अधिक शुरू हुआ, जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) थे और उन्होंने उसी साल सितंबर में अपनी पार्टी सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी चित्रकूट में आहूत की थी. तब पहली बार उन्होंने खुल कर ब्राह्मणों को सपा में आने का आह्वान किया था. इसके बाद 2007 में जब विधानसभा चुनाव हुए तब बहुजन समाज पार्टी (BSP) इस मामले में अव्वल रही और वह ब्राह्मण वोटों का बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गई. संयोग से 2007 में पहली बार बसपा की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी और इसका क्रेडिट ब्राह्मणों को मिल गया. इसके बाद से बसपा में अपनी ब्राह्मण छवि लेकर आए कूटनीतिक नेता सतीश मिश्र का क़द बढ़ता गया. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के नए और युवा चेहरे अखिलेश यादव ने भी ब्राह्मणों को खूब टिकट दिए और वे भी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गए.

ब्राह्मण वोटों के लिए यह ललक 1989 के बाद से पैदा हुई. ब्राह्मण 1989 तक मोटा-मोटी कांग्रेस के साथ जाता था लेकिन 1990 की लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा और अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन ने ब्राह्मणों को लगभग कांग्रेस से छीन लिया. दरअसल ब्राह्मण चाहे जिस पार्टी में रहे, वह हिंदू धर्म एवं संस्कार से दूर नहीं जा पाता. जब राम मंदिर आंदोलन चल रहा था, तब कानपुर के एक बड़े कम्युनिस्ट नेता कामरेड सुदर्शन चक्र ने मुझसे कहा था- "देखो भाई शंभू! जब राम और बाबर में होड़ होगी तब हम खड़े तो राम के पक्ष में ही होंगे!" सुदर्शन चक्र जाति से मिश्र सरनेम वाले ब्राह्मण थे और कभी भी उन्होंने अपनी जाति पब्लिक के समक्ष प्रकट नहीं की. दरअसल 1990 के बाद एक ऐसा दौर शुरू हुआ था, जब हर तरह की विचारधारा के व्यक्ति ने अपनी-अपनी सुविधा से राजनीतिक पार्टी चुन ली थी. इसी दौर में अयोध्या (फ़ैज़ाबाद) से सीपीआई के लोकसभा सदस्य मित्रसेन यादव सपा में गए और बांदा के सीपीआई सांसद राम सजीवन बसपा में. इसी दौर में ब्राह्मण कांग्रेस छोड़ बीजेपी की तरफ़ हो लिया. आप 1996 के लोकसभा चुनावों से अंदाज़ा लगा सकते हैं. जब सरकार कांग्रेस की थी किंतु नरसिंह राव सरकार को बुरी तरह हारना पड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने की यह शुरुआत थी. उसके बाद की दो सरकारों के बाद आई बीजेपी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो ब्राह्मण वोट एकदम से उनके साथ चला गया.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राम मंदिर आंदोलन की कृपा से 1991 में बीजेपी को 425 में से 221 सीटें मिल गई थीं. इसके बाद 6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई तो यूपी में कल्याण सिंह की सरकार भी केंद्र ने बर्खास्त कर दी. इसके बाद एक साल उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा और दिसम्बर 1993 के चुनाव में बीजेपी को 177 सीटें मिलीं किंतु सपा और बसपा के गठजोड़ से सरकार इनकी बनी और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री हुए. मगर यह सरकार चल नहीं पाई, दो साल पूरे होने के पहले ही गठजोड़ टूट गया और 18 अक्तूबर 1995 को विधानसभा निलंबित कर दी गई इसके कुल 9 दिन बाद विधानसभा भंग हो गई लगभग एक वर्ष बाद प्रदेश में फिर विधानसभा चुनाव हुआ, पर स्पष्ट बहुमत किसी के पास नहीं था. इस चुनाव में बीजेपी को 174, सपा को 110 और बसपा को 67 सीटें मिलीं. लेकिन इस बीच की दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं. एक तो पिछली सरकार में मुलायम और माया में तकरार इतनी बढ़ी कि उस समय के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह पर आरोप लगा कि उनके इशारे पर सपा कार्यकर्ताओं ने लखनऊ स्थित स्टेट गेस्टहाउस में मायावती को घेर कर उनको मारने की कोशिश की. पर बीजेपी के नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी की दृढ़ता से वे बच गईं. दूसरे 1996 के मई में बीजेपी के अटलबिहारी वाजपेयी को राष्ट्रपति ने केंद्र में सरकार बनने को कहा, उन्होंने सरकार बनाई किंतु लोकसभा में वे आवश्यक बहुमत न जुगाड़ सके इसलिए कुल 13 दिन बाद सरकार गिर गई. लेकिन यह संदेश तो चला ही गया कि बीजेपी भी केंद्र में आ सकती है.

यही कारण था कि 1996 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में मायावती ने बीजेपी के साथ एक समझौता किया. इस समझौते के अनुसार छह महीने बसपा की मायावती और छह महीने बीजेपी के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री रहेंगे. मगर मायावती का कार्यकाल पूरा होने के पहले ही बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया. कुछ दिन विधानसभा निलम्बित रही फिर जोड़-तोड़ कर बीजेपी ने सरकार बनाई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. इस बार के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह 1991 वाली छवि से दूर थे. जोड़-तोड़, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों से घिरे. केंद्र में 1998 में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार आ गई थी इसलिए अब यूपी में बीजेपी सरकार को गिराना आसान नहीं था किंतु मुख्यमंत्री बदले गए. बीजेपी से राप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह क्रमशः मुख्यमंत्री बने. कलराज मिश्र और राम प्रकाश त्रिपाठी जैसे नेता टापते रह गए.

उधर ब्राह्मण ब्रह्मदत्त द्विवेदी के ज़रिए प्रदेश में बीजेपी का नेता तलाश रहा था. प्रदेश में पिछड़ी जातियों का राजनीतिक वर्चस्व इतना ताक़तवर था, कि ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या हो गई और जांच ठंडे बस्ते में डाल दी गई. हर जाति माफ़ियाओं में भी अपना रॉबिनहुड तलाशती है। ब्राह्मणों ने यह छवि श्रीप्रकाश शुक्ल में देखी, जो पूर्वांचल का नया माफिया उभर रहा था. कल्याण सिंह के दूसरे कार्यकाल के वक्त उसे एनकाउंटर में मार दिया गया. शायद इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए भी 2002 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 88 सीटों पर सिमट गई. जबकि बसपा को 98 और सपा को 143 सीटें मिलीं. इस चुनाव में विधानसभा की कुल सीटें 425 के स्थान पर 404 रह गई थीं, क्योंकि 2000 में उत्तरांचल के नाम से उत्तर प्रदेश का पर्वतीय क्षेत्र अलग हो गया था और सीटें घट गई थीं. लोकसभा में भी प्रदेश के पास अब 85 की बजाय 80 सीटें बची थीं. राजनीति के गणित में इसे ब्राह्मणों का बीजेपी से मोहभंग माना गया.

इसके बाद शुरू हुआ सपा और बसपा द्वारा ब्राह्मणों को रिझाने का खेल. हालांकि 2002 में बीजेपी की मदद से सरकार मायावती की बनी किंतु इसमें भी 1996 जैसा पेच था. बस अबकी मियाद ढाई-ढाई साल की थी. और अब बसपा के मददगार लालजी टंडन और मुरली मनोहर जोशी थे. पर एक साल के भीतर ही खेल शुरू हो गया, मुलायम सिंह दिल्ली आकर अटल बिहारी से मिले तथा मायावती की पहल के पहले ही लालजी टंडन ने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री के पास जाकर सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. उधर मायावती विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश करती ही रह गईं प्रदेश में सपा की सरकार बन गई. मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हुए और बीजेपी उनकी सरकार बचाए रखने के लिए बाहर-भीतर का खेल करती रही.

इसी के बाद शुरू हुई ओबीसी और दलितों की पार्टी के बीच ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की कोशिशें. यूं भी इस मध्य इतना अंतराल हो चुका था कि ब्राह्मणों का अपना न कोई सर्वमान्य नेता बचा था न उनके सामान्य जनों के पास चुनाव लड़ने की कूवत. उसे सिर्फ़ रिझाया जा सकता था. कभी उसकी संख्या में अतिशयोक्ति कर तो कभी उसको सम्मान देने के प्रहसनों से. यही कारण रहा कि 2007 के चुनाव में मायावती को अपनी दम पर 206 सीटें मिल गईं और समाजवादी पार्टी को 97 सीटें जबकि बीजेपी 51 पर सिमटी. इसके बाद 2012 में समाजवादी पार्टी को 224 सीटें मिलीं तथा बसपा को 80 और बीजेपी को कुल 43 सीटें.

सपा और बसपा सरकारों के गठन में ब्राह्मण वोटों के उनकी तरफ़ रुझान का एक प्वाइंट तो रहा, मगर 10 वर्ष की इन सरकारों के कार्यकाल में उनके प्रति कोई विशेष लगाव सरकार ने नहीं दिखाया. इसलिए बीजेपी ने ब्राह्मण कार्ड खेलने की नीयत से 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद मेरठ से विधायक लक्ष्मीकांत वाजपेयी को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. लक्ष्मीकान्त वाजपेयी साफ़ छवि के और लोकप्रिय ब्राह्मण थे. उनकी अगुआई में बीजेपी ने मेयर चुनाव भी जीते. इसके बाद 2015 में केशव प्रसाद मौर्य को अध्यक्ष बना कर अति पिछड़ों को साधा. 2017 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में बीजेपी को 312 सीटें मिलीं. लम्बे ऊहापोह के बाद 18 मार्च 2017 को योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली. कुछ दिन तो योगी के भगवा वस्त्र में उनकी जाति का पता लोगों को नहीं चला. परंतु 2019 के बाद से उत्तर प्रदेश में बीजेपी के भीतर ब्राह्मण बनाम राजपूत की खींचातानी शुरू हुई. मगर उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण चेहरों का अभाव है. कलराज मिश्र राज्यपाल हैं और महेंद्र नाथ पांडेय केंद्र में मंत्री. इसलिए यह मौक़ा सपा-बसपा के पास है कि वे यूपी में ब्राह्मणों को अपने पाले में लाएं.


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