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दशकों से तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज द्रमुक और अन्नाद्रमुक का आधार द्रविड़ विचारकों की सामाजिक न्याय की अवधारणा रही है
एस श्रीनिवासन,
दशकों से तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज द्रमुक और अन्नाद्रमुक का आधार द्रविड़ विचारकों की सामाजिक न्याय की अवधारणा रही है। यहां सन् 1967 में कांग्रेस सरकार का अंत हुआ था, जिसके बाद से द्रविड़ विचारधारा और कल्याणकारी राज्य संबंधी नीतियों का संगम ही मतदाताओं को लुभाता रहा है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में भाजपा के हाथों समाजवादी पार्टी की हार ने हिंदुत्व की ताकत से मुकाबला करने की संयुक्त ओबीसी की सीमा को संभवत: उजागर कर दिया है। मगर तमिलनाडु में कहानी बिल्कुल अलग है।
यहां लोगों को गैर-द्रविड़ विकल्प मुहैया कराने के लिए विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने वर्षों से कई प्रयास किए हैं। मगर यह कवायद जमीन पर सफल नहीं हो सकी है। इसीलिए, द्रविड़ विचारधारा आज भी निर्विरोध कायम है। इसके उलट, राज्य के अन्य दल द्रविड़ विचारधारा के नकलची या घटिया प्रतिरूप बनकर रह गए हैं। यहां के वामपंथी दल भी इसके अपवाद नहीं हैं। 1980 के दशक के अंत में वीपी सिंह और लालू प्रसाद यादव ने ओबीसी ताकत के बूते हिंदुत्व की लहर पैदा करने वाली कोशिशों को नाकाम किया था। 23 अक्तूबर, 1990 को लालू यादव ने बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करके उनकी रथयात्रा बाकायदा रोक दी थी। इससे पहले वीपी सिंह पिछड़ी जातियों के मतों के बूते ही प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच पाए थे।
इस बार मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में ओबीसी मतों को एकजुट करने के लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा को आगे बढ़ाया। उन्होंने गठबंधन बनाने के लिए गैर-यादव, गैर-जाटव दलितों और अन्य अति पिछड़े समुदायों को एक साथ लाने का प्रयास किया। उन्होंने किसान जैसे विभिन्न हित समूहों को भी अपने साथ जोड़ा। मुस्लिमों को पर्याप्त टिकट बांटे। मगर उनके तमाम प्रयास धरे रहे गए। तो क्या इसका अर्थ यह है कि सिर्फ सामाजिक एकता भगवा लहर को मात नहीं दे सकती?
सवाल यह भी है कि क्या तमिलनाडु में द्रमुक के लिए इसमें कोई सबक है? भाजपा बरसों से राज्य की राजनीति में पैर जमाने की कोशिश कर रही है। बेशक, उसको अब तक बहुत सफलता नहीं मिल पाई है, लेकिन हाल के स्थानीय निकाय चुनावों में अकेले मैदान में उतरने के बावजूद उसके वोट प्रतिशत में करीब छह फीसदी की वृद्धि देखी गई है। उत्तर प्रदेश की अभूतपूर्व सफलता ने तमिलनाडु में भाजपा कार्यकर्ताओं और उसके समर्थकों का उत्साह बढ़ा दिया है। इसका मुकाबला द्रमुक पार्टी आखिर कैसे करेगी?
द्रविड़ विचारधारा की सफलता के कई कारण हैं। बेशक, ओबीसी मतों की एकजुटता इस आंदोलन का आधार है, फिर भी कई ऐसे अन्य कारक हैं, जो इसे एक अजेय राजनीतिक मंच बनाते हैं। ये स्वाभिमान आंदोलन हैं, जिनसे सामाजिक परिवर्तन हुए। मध्याह्न भोजन, एक रुपये किलो चावल व अन्य नई योजनाओं ने न केवल यहां के पोषण स्तर में सुधार किए, बल्कि स्कूलों में नामांकन बढ़ाने का काम भी किया। शिक्षा पर लगातार ध्यान दिए जाने से कुशल कार्य-बल बना, जिसने निर्माण-कार्य और सेवा, दोनों ही मामलों में उद्योगों की मदद की।
यहां स्वास्थ्य देखभाल और गरीबों के लिए घर जैसी अन्य कल्याणकारी योजनाओं ने न केवल सकल नामांकन अनुपात में वृद्धि की और कई सामाजिक संकेतकों में राज्य को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि इसने राज्य की माली हालत सुधारने में भी मदद की। सरकार और सत्तारूढ़ दल ने मिलकर काम किया, ताकि समाज के अंतिम छोर तक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों को मिले। हालांकि, मुफ्त टेलीविजन, मिक्सर, ग्राइंडर जैसी कुछ लोक-लुभावन योजनाओं की अर्थशा्त्रिरयों के एक तबके ने तीखी आलोचना भी की, लेकिन मुफ्त की ऐसी योजनाएं वास्तव में कई आम लोगों का जीवन बदलने में कामयाब रही हैं।
यहां की राजनीति का सिनेमा से भी हमेशा करीबी रिश्ता रहा है। बुद्धिजीवी इस पर नाक-भौं भले सिकोड़ते रहे हों, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि द्रविड़ नेता जनता के साथ संवाद करने के लिए सिनेमा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना जानते हैं। द्रविड़ विचारक जनसंचार के विस्फोट से बहुत पहले इस माध्यम के महत्व को जान गए थे। इसीलिए, राज्य की तमाम पार्टियां फिल्म की ताकत से परिचित हैं। यहां तक कि भाजपा ने भी, जो वैचारिक पक्षधरता की कसमें खाती रहती है, सुपरस्टार रजनीकांत की मदद से 2016 में राज्य की राजनीति में प्रभावी ढंग से प्रवेश करने का प्रयास किया था, मगर 2021 में उसे इससे पीछे हटना पड़ा, क्योंकि रजनीकांत ने सक्रिय राजनीति में शामिल न होने का एलान कर दिया। तब से पार्टी राज्य में खुद को फिर से स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। यह जमीन पर लगातार काम कर रही है, ताकि बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं और प्रबंधकों का एक नेटवर्क बना सके। राज्य के छोटे-छोटे सामाजिक समूहों के साथ गठबंधन बनाने की भी यह कोशिश कर रही है। स्थानीय नेताओं को तवज्जो देकर भाजपा उत्तर भारतीय पार्टी होने की अपनी छवि को भी तोड़ने का प्रयास कर रही है। एक कोशिश द्रमुक को अपनी तरफ लुभाने की भी हो रही है।
बहरहाल, स्टालिन की छवि को अब कहीं ज्यादा आगे बढ़ाने की जरूरत इसलिए आन पड़ी है, क्योंकि भाजपा प्रधानमंत्री मोदी को आगे करके हमला बोलती है, विशेषकर जब चुनाव लोकसभा के हों। द्रमुक निश्चित तौर पर भाषा और स्थानीय पहचान की अपनी ताकत के बूते चुनाव में उतरेगा, लेकिन संसद में पर्याप्त सदस्यों को भेजने के लिए उसे अपनी रक्षा-पंक्ति को मजबूत करना होगा। संभवत: इसीलिए, द्रमुक खुद को एक ऐसे राजनीतिक दल के रूप में भी पेश करने लगा है, जो धर्म के खिलाफ नहीं है। उसके नेता अब नास्तिक होने की अपनी पुरानी पहचान से भरसक बचने की कोशिश करने लगे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Rani Sahu
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