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आदित्य नारायण चोपड़ा: वक्त के बदलते तेवर और विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए कांग्रेस को ऐसा फैसला लेना चाहिए जिससे इसकी 136 साल पुरानी विरासत भी बची रह सके और नये दौर में यह प्रासंगिक भी बनी रह सके। कांग्रेस पार्टी की सर्वोच्च निर्णायक संस्था कार्य समिति ने आज अपनी बैठक में अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए 17 अक्तूबर का दिन निश्चित किया और 19 अक्तूबर को वोटों की गिनती का दिन मुकर्रर किया। पार्टी के संविधान के मुताबिक यह फैसला किया गया है। अतः इस पार्टी के सभी नेताओं का कर्त्तव्य बनता है कि वे पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र की स्थापना उसी प्रकार करें जिस प्रकार 'नेहरू कार्यकाल' में थी। यह एक हकीकत है कि इस परंपरा को समाप्त करने वाली कोई और नहीं बल्कि एक जमाने में देश की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ही थीं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वह एक करिश्माई नेता थीं और पूरी कांग्रेस उधर ही होती थी जिधर श्रीमती गांधी होती थीं। मगर अपनी लोकप्रियता के बूते पर उन्होंने कांग्रेस संगठन को ही अपनी मनपसंद के नेताओं का जमघट बना डाला जिसकी वजह से कांग्रेस जन परक न होकर नेता परक होती चली गई और सारे फैसले श्रीमती गांधी की आंख के इशारे पर ही होने लगे।वस्तुतः कांग्रेस में गणेश परिक्रमा की संस्कृति यहीं से शुरू हुई और जनता के बीच काम करके ऊपर उठने वाले नेताओं की प्रतिष्ठा हाशिये पर जाने लगी। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी जनता से कटने लगी और जन सम्पर्क बनाये रखने के स्थान पर नेता से सम्पर्क बनाना ऊपर उठने की शर्त हो गई। श्रीमती गांधी की मृत्यु के बाद भी यही संस्कृति कांग्रेस में जारी रही जिसकी वजह से इस पार्टी में श्रीमती गांधी जैसे नेता के अभाव में संगठन धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा। कांग्रेस को सर्वप्रथम यह स्वीकारोक्ति करनी होगी कि उसके पास अब इंदिरा गांधी जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं है। अतः उसे श्रीमती गांधी की राजनैतिक संस्कृति को छोड़ कर पं. नेहरू की उस संस्कृति की तरफ लौटना होगा जिसमें हर क्षेत्र का जन नेता अपने सर्वोच्च नेता की आंख में आंख डाल कर अपनी बात कह सकता था। इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं जब पं. नेहरू जैसे सर्वशक्तिशाली और लोकप्रिय नेता को अपनी पार्टी के सामान्य नेताओं की जायज मांगों के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया। सबसे बड़ा उदाहरण चौधरी चरण सिंह का है जब कांग्रेस में रहते हुए पचास के दशक में उन्होंने कांग्रेस के अखिल भारतीय सम्मेलन में पं नेहरू की सहकारिता खेती नीति का खुलेआम उल्लंघन किया था।संपादकीय :लोक जीता, भ्रष्ट तंत्र हाराघर के सुन्दर सपनों को साकार करने में मदद करोझारखंड में राजनैतिक झमेला !नस्लवाद का अड्डा है अमेरिकागुलाम नबीः आजादी का सबबअमित शाह की निर्णायक जंगइससे पहले ओडिशा के मुख्यमन्त्री डा. हरेकृष्ण मेहताब ने भी अमेरिकी मदद से मुफ्त सामुदायिक विकास साधनों के निर्माण का विरोध किया था। प. नेहरू ने हर बार अपने फैसलों को बदलना उचित समझा। मगर श्रीमती गांधी ने इस जनमूलक संस्कृति को पूरी तरह उलट दिया और संगठन को अपने जी- हुजूर नेताओं से इस तरह भर डाला कि पूरी कांग्रेस पार्टी ही तदर्थ आदार पर चलने लगी। वह राज्यों के मुख्यमन्त्री इस प्रकार बदला करती थीं जिस तरह किसी दफ्तर में पानी पिलाने वाले कर्मचारी को बदला जाता है। मगर इसके पीछे उनका स्वयं का प्रताप था जिसे अपार जनसमर्थन से ऊर्जा मिलती थी। उनकी मृत्यु के बाद कांग्रेस का जन मूलक स्वरूप नहीं उभर सका और परिणामतः पार्टी का जनाधार ही सिमटने लगा परन्तु इतना सब होने के बावजूद आज भी कांग्रेस को कुल 80 करोड़ मतदाताओं में से 12 करोड़ मतदाताओं के वोट मिलते हैं अतः इस जमीन को संभालते हुए आगे चलने की सख्त जरूरत है जिससे देश के लोकतन्त्र में एक सशक्त विपक्षी पार्टी का अस्तित्व कायम रह सके।श्री गुलाम नबी आजाद के पार्टी से बाहर हो जाने के बाद आज भी कांग्रेस में योग्य व अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है। मगर परिस्थितियां निश्चित रूप से 1969 या 1978 जैसी नहीं हैं जब श्रीमती गांधी ने अपने ही बूते पर कांग्रेस को पुनः खड़ा कर दिया था। इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत होगी और प्रत्येक नेता को स्वयं को भीतर से टटोलना होगा कि वह पार्टी के लिए क्या कर सकता है। किसी एक व्यक्ति के ऊपर अंध विश्वास का फलसफा देते हुए चाटुकारिता की चौपाइयां पढ़ने का समय जा चुका है और वस्तुनिष्ठ होकर परिस्थितियों का वैज्ञानिक विश्लेषण करने का समय आ चुका है। अतः कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए ऐसे नेताओं का आगे आना जरूरी है जिनमें इस संकटकाल में पार्टी को नई दिशा और दशा देने की क्षमता हो। पार्टी को इसके लिए नये वक्त की चुनौतियों को समझना होगा और भाजपा द्वारा खड़े किये राष्ट्रवाद के विमर्श का मुकाबला करने के लिए स्वतन्त्रता पूर्व की राजनीति के मानकों को छोड़ कर देश की नई पीढ़ी की अपेक्षाओं के अनुरूप ठोस विमर्श को आगे लाना होगा। केवल 'मोदी विरोध' कोई विमर्श नहीं हो सकता क्योंकि श्री मोदी ने सरकारी नीतियों को जिस तरह सकल राष्ट्रवाद के भीतर जन मूलक व गरीब परक बना कर व्यावहारिक रूप दिया है उससे पूरी राजनीति का चरित्र ही बदल गया है। निश्चित रूप से यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि पिछली सदी तक देश के विकास का इतिहास वही है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है और इसी दौरान हर क्षेत्र में भारत की हुई तरक्की को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता क्योंकि 1947 में सुई तक का उत्पादन न करने वाले भारत में औद्योगिक क्रान्ति के नये मानदंड स्थापित किये गये थे। मगर कांग्रेस एक ही खूंटे से अटके रहने की जिद ठान कर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती। जमाना पूरी तरह बदल चुका है।जिद की ही है और बात पर खू बुरी नहीं भूले से उसने सैकड़ों वादे वफा किये