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तमिलनाडु और मद्रास हाई कोर्ट की अहम टिप्पणी
भारतीय भाषाओं के संदर्भ में शिक्षा नीतियों की जब भी चर्चा होती है, विशेषकर दक्षिण भारतीय राज्यों की ओर से हिंदी के विरोध में सुर उठने लगते हैं। व्यावहारिक धरातल पर हिंदी लगातार स्वीकार्य होती जा रही है। लेकिन राजनीति ने पेचोखम की ऐसी बुनियाद तैयार की है, कि अंग्रेजी की तुलना में हिंदी को कमतर बताते हुए दक्षिण भारत के कुछ समूहों की ओर से सवाल उठाए जाने लगते हैं। जनवरी के पिछले हफ्ते में मद्रास हाई कोर्ट ने नई शिक्षा नीति और उसमें हिंदी की स्वीकार्यता पर उठाए गए एक सवाल को लेकर जिस तरह की टिप्पणी की है, उसे हिंदी भाषी प्रदेशों को भी जानना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश यह टिप्पणी हिंदी समाचार माध्यमों से भी अनदेखी रह गई है।
तमिलनाडु के एक गैर सरकारी संगठन 'आलमाराम' के सचिव अर्जुनन एलियाराजा ने मद्रास हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। याचिका में मांग की गई है कि तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति राज्य की सोच के हिसाब से बदलाव के बाद ही लागू की जाए। एलियाराजा को दिक्कत नई शिक्षा नीति की भाषाओं के संदर्भ में की गई उस टिप्पणी से है, जिसमें दौलत सिंह कोठारी आयोग की सिफारिशों के मुताबिक, प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा में मातृभाषा के साथ ही त्रिभाषा फॉर्मूले पर जोर देने की बात कही गई है। तमिलनाडु में नई शिक्षा नीति अभी लागू नहीं हुई है। लेकिन शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को लेकर जो संकल्प जताया गया है, उसे लेकर तमिलनाडु में राजनीतिक खदबदाहट जारी है। यह याचिका भी इसी का नतीजा है।
याचिका पर सुनवाई करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने जो कहा है, उसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एम. एन. भंडारी और न्यायमूर्ति पी. डी. औदिकेसवलु की पीठ ने याचिकाकर्ता से पूछ लिया, 'हिंदी सीखने में क्या दिक्कत है?' एम.एन. भंडारी ने कहा कि तमिलनाडु के तमाम लोग योग्यता होते हुए भी सिर्फ हिंदी न जानने की वजह से केंद्रीय स्तर की कई नौकरियां नहीं कर पाते। उन्होंने अपने एक साथी न्यायाधीश का हवाला देते हुए कहा कि उनके भाई को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया में नौकरी मिल गई थी। लेकिन उन्हें हिंदी न जानने की वजह से नौकरी नहीं मिली। पिछली सदी के साठ के दशक में तमिलनाडु के हिंदी विरोधी आंदोलन में हिस्सा ले चुकी पीढ़ी अब बुजुर्ग हो चुकी है। वह भी अनौपचारिक बातचीत में अफसोस जताने से नहीं चूकती। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और एक दौर में जनता दल जैसे राष्ट्रीय दलों के तमिलनाडु निवासी राजनेता भी आपसी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उनकी अखिल भारतीय पहचान न होने में उनका हिंदी न जानना भी है।
बहरहाल, मद्रास हाई कोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया है। इस पर फैसला आने में अभी देर है। लेकिन हाई कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यहां तक कह दिया कि तमिलनाडु के शिक्षण संस्थानों में नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत हिंदी को तीसरी भाषा बनाने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। इस दौरान अदालत ने तमिलनाडु के महाधिवक्ता से उनकी राय भी मांगी थी। याद रखने की बात यह है कि तमिलनाडु के सत्ताधारी डीएमके की राजनीति का बड़ा आधार हिंदी विरोध भी रहा है। जाहिर है कि महाधिवक्ता ने उसी मुताबिक जवाब दिया। उन्होंने अदालत की टिप्पणी के जवाब में कह दिया कि चूंकि राज्य में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा जैसे संगठन सक्रिय हैं और कोई भी व्यक्ति वहां से हिंदी सीख सकता है। महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि अगर त्रिभाषा फॉर्मूला लागू किया गया, तो इसकी वजह से छात्रों पर दबाव बढ़ेगा। इस पर कोर्ट की टिप्पणी भी बहुत मानीखेज रही। अदालत ने कहा कि 'सीखना', 'शिक्षण से पूरी तरह अलग है।' हाई कोर्ट ने एक तरह से तमिलनाडु में हिंदी की नई राह दिखाई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी की व्यापकता की परिधि बढ़ाने की दिशा में न्यायपालिका की यह टिप्पणी कारगर हो सकेगी।
अमर उजाला
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