सम्पादकीय

नई शिक्षा नीति: लोक कलाओं को शिक्षा से जोड़ने की कवायद

Gulabi
25 Feb 2022 7:18 AM GMT
नई शिक्षा नीति: लोक कलाओं को शिक्षा से जोड़ने की कवायद
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हाल ही में शिक्षा, महिलाओं, बच्चों, युवाओं और खेल मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपी है
अश्वनी शर्मा।
हाल ही में शिक्षा, महिलाओं, बच्चों, युवाओं और खेल मामलों की स्थायी संसदीय समिति ने संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय पारंपरिक और लोक कलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कला शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके लिए स्कूली शिक्षा में संगीत, नृत्य व रंगमंच आदि विषयों की पढ़ाई अनिवार्य है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हमें औपनिवेशिक मानसिकता छोड़ने की जरूरत है।
कुछ वर्ष पहले स्कूली शिक्षा में पर्यावरण अध्ययन को भी शामिल किया गया था कि बच्चों में पर्यावरणीय चेतना का संचार करना है। उससे कुछ वर्ष पूर्व बच्चों को ज्यादा तर्कशील बनाने पर बहस चली थी। इसलिए विज्ञान व गणित की पढ़ाई पर जोर दिया गया था। कुछ लोग ऐसा पाठ्यक्रम बना रहे थे, जो बच्चों में आउट ऑफ बॉक्स थॉट विकसित करे। अब नई शिक्षा नीति, 2020 में कला को जोड़ने की बात है। आखिर इस रिपोर्ट के पीछे की हमारी सोच क्या है? क्या हम यह सोच रहे हैं कि लोक कलाओं को स्कूली शिक्षा से जोड़ देने से लोक कलाएं बच जाएंगी?
क्या इससे लोक कलाकार के जीवन में बदलाव आएगा? क्या हमारी सोच यह है कि इसको पढ़कर बच्चे ज्यादा संवेदनशील, ज्ञानवान और विवेकशील बनेंगे? या फिर उनमें अपनी सभ्यता व संस्कृति की समझ विकसित होगी, जिससे वे ज्यादा सजग बन सकेंगे? जब इन तर्कों का परीक्षण करते हैं, तो हमें समझ में आता है कि दरअसल हम बच्चे के बस्ते का बोझ ही बढ़ा रहे हैं। न हमारी सोच में स्पष्टता है, न इसकी कोई कार्य योजना है और न इसे डिलीवर करने का कोई जरिया हमारे पास है। आखिर लोक कला को स्कूली शिक्षा में सिखाएगा कौन? क्या कोई ऑनलाइन माध्यम से जुड़ी एजेंसी होगी? या कोई बाहर से सीखकर आया व्यक्ति? या फिर कोई इंडियन क्राफ्ट डिजाइन जैसी कंपनी जिसने पिछले वर्ष दो अक्तूबर को गांधी जयंती पर जवाहर कला केंद्र, जयपुर में कठपुतली नचाई थी। या फिर इसका दायित्व भी पहले से जंग खाए शिक्षकों पर होगा?
हम एक तरफ लोक कलाओं को बचाने व बढ़ाने की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ हर उस स्थान पर, जहां लोक कलाएं जिंदा रह सकती हैं, लाइट ऐंड साउंड शो को ठेल रहे हैं। भले ही वह दिल्ली का लाल किला हो या राजस्थान का कोई किला। इस वर्ष तो गड़ीसर झील पर भी लाइट ऐंड साउंड शो का कार्यक्रम शुरू कर दिया गया है। यही हाल मध्य प्रदेश का है। इस रिपोर्ट में कला विश्वविद्यालय बनाने पर जोर दिया गया है। हमारे यहां पहले से सात सांस्कृतिक जोन हैं। कितनी ही साहित्य अकादमियां, आदिवासी संग्रहालय, म्यूजियम, कला केंद्र हैं। इनका उद्देश्य क्या है, आखिर ये बनाए क्यों गए थे? ये सभी कला के विश्वविद्यालय के रूप में ही हैं। किंतु आज ये महज मुनाफा कमाने की दुकान बनकर रह गए हैं। लोक कलाओं की अपनी दुनिया होती है। उनके अपने राग होते हैं। उनका अपना संवाद होता है। उनको समझने की अपनी अलग दृष्टि होती है। लोक कलाकारों से लोक कला को अलग करने का अर्थ है, हजारों वर्षों से सीखे ज्ञान को मिट्टी का ढेर बनाना।
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