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जगमोहन सिंह राजपूत।
विश्व में कोरोना के पश्चात शिक्षा के रूप-स्वरूप के त्वरित बड़े बदलाव की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। शिक्षा की गतिशीलता उसका आवश्यक अंग है, लेकिन कोरोना के विस्तार ने शिक्षा में 'क्या पढ़ाया जाए और कैसे पढ़ाया जाए' के संपूर्ण क्षितिज को अप्रत्याशित ढंग से बदल दिया है। पूरी दुनिया ने कठिन स्थिति को लगभग दो वर्ष झेला है और अभी भी अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है। इस दौरान सबसे अधिक हानि बच्चों और युवाओं को हुई है। उनके व्यक्तित्व विकास और सीखने के अधिगम में जो कमियां आई हैं, उसकी भरपाई करने के प्रयास अब और अधिक ऊर्जा के साथ हो रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के क्रियान्वयन के प्रयास इन सारी स्थितियों को पूरी तरह समझकर किए जा रहे हैैं। अत: हर वर्ग की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। अगले दो वर्षों में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में भारत कितना सफल होगा। इस समय देश में 1.508 करोड़ स्कूल हैैं। इनमें लगभग 97 लाख अध्यापक हैैं। 26.5 करोड़ बच्चे स्कूलों में हैं, जिनमें 1.87 करोड़ यानी 62 प्रतिशत प्रारंभिक स्कूलों में हैं। मोटे तौर पर अनुमान यह है कि करीब दस लाख से अधिक स्कूल अध्यापकों के पद रिक्त हैं। स्कूली शिक्षा में एक बड़ी चुनौती यह है कि वर्ष 2006 के बाद के 15 वर्षों में सरकारी स्कूलों में 15 प्रतिशत नामांकन कम हुआ है, जिसे आबादी की वृद्धि के अनुपात में बढऩा चाहिए था। भारत के समेकित और समग्र विकास का रास्ता गांवों के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से ही निकलेगा। लिहाजा इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने होंगे।