सम्पादकीय

चिंतन के नए आयाम : ऐसी वाणी बोलिए…

Rani Sahu
11 Sep 2021 7:01 PM GMT
चिंतन के नए आयाम : ऐसी वाणी बोलिए…
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अपनी संहिता में आचार्य आत्रेय पुनर्वसु लिखते हैं कि- मिथ्याभाषण से बढ़ कर कोई पाप नहीं

वल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

ताकि सनद रहे…
अपनी संहिता में आचार्य आत्रेय पुनर्वसु लिखते हैं कि- मिथ्याभाषण से बढ़ कर कोई पाप नहीं। जहां सामाजिक स्तर पर मिथ्याभाषण होता है, उस राष्ट्र को देवता छोड़ जाते हैं और रोग-व्याधियां उस राष्ट्र का विनाश कर डालते हैं।
सृष्टि में जो भी कुछ दिखने में आता है, वह मनुष्य की इच्छा के अनुकूल ही प्रकट हुआ है। मनुष्य ही सृष्टि का उपभोक्ता है। नाद (वाणी) का योग्य अधिकारी भी मनुष्य को ही बताया गया है। सोचो, यदि नाद न होता तो उस गूंगी सृष्टि का क्या अर्थ रह जाता। नाद में जागृति है और सृष्टि के रचनाक्रम में सर्वाधिक महत्त्व नाद (वाणी) का ही है। सारे शब्द, अक्षर जो ध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, वे नाद के ही मूर्त रूप हैं। नाद को ब्रह्म का दर्जा इसलिए दिया गया है कि जागृति के साथ वहां चेतना भी सक्रिय है। संत कबीर के अनुसार इस घट (शरीर) के भीतर वह बजता ही रहता है। कुछ क्षणों के लिए अपनी श्वास क्रिया को रोक लें। नाक, कान, आंख, मुंह बंद कर लें तो भीतर प्राणों का जो आंदोलन चलता है, वही अनहद नाद है, जिसे अंतर्नाद या अंतध्र्वनि भी कहा जाता है, और जो हमारे शरीर के विभिन्न अंगों से टकराकर भाषा का रूप लेता है। नाद में जीवन है, वह स्वयं वेद रूप है।
नाद से सर्वप्रथम कविता जन्म लेती है, इसलिए हमारा आदि साहित्य कविता में रचा गया है। जिसे कविवर निराला ने- 'तुम नाद वेद ओंकार सार, मैं कवि शृंगार शिरोमणि कहकर स्पष्ट किया है। ऋग्वेद में नाद (ध्वनि) का अक्षर से लेकर भाषा बनने तक की स्थितियों का जो वर्णन किया है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। शब्द और वाणी की शक्ति को महर्षि पतंजलि ने व्यापक रूप में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पदार्थ का बोध कराने वाली जो ध्वनि है, उसी को व्यवहार में शब्द कहा जाता है। शक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का माध्यम शब्द ही है। प्राचीन विद्वानों की मान्यता है कि शब्द की शक्ति सीमा में रहते हुए भी असीमित है, इस कारण वहां शब्द को आध्यात्मिक माना गया है। विश्व में ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जो वाणी के प्रकाश से दूर हो। शब्द केवल प्रेम, विद्वेष, क्रोध, वात्सल्य आदि भावों को ही प्रकट नहीं करता, अपितु यह ज्ञान भी कराता है कि उसका उच्चारण करने वाला स्त्री है या पुरुष, पक्षी है या जानवर, अच्छा है या बुरा। मत्स्यपुराण मेें वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को मंत्र माना गया है, जिसका शुद्ध उच्चारण ही विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाला बताया गया है।
वहां कहा गया है कि- कोई अक्षर ऐसा नहीं जिसमें मंत्र की शक्ति न हो, कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसमें औषधि के गुण न हों और कोई मनुष्य ऐसा नहीं जो सर्वथा अयोग्य हो, यदि कमी है तो यही कि उनमें गुणों की पहचान कर उनसे लाभ लेने वाले ही नहीं मिलते। प्राचीन चिकित्सा विज्ञान में 'मंत्र-चिकित्सा नाम से एक नई विधा का सूत्रपात हुआ था, जो शब्दों और ध्वनियों पर ही आधारित थी। वहां चिकित्सक की मानसिक-शक्ति ही ध्वनि पर सवार होकर मंत्र बन जाती थी जो अनेक प्रकार के रोग-शोक को दूर करने की क्षमता रखती थी। प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी ऐसे कूटमंत्रों की कमी नहीं जो अक्षर और ध्वनियों के माध्यम से कामनाओं की पूर्ति का माध्यम बनते हैं। ध्वनि की शक्ति बड़ी प्रबल है। कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि जहां गोपियों को घरों से बाहर खींच लाती है, पशु-पक्षियों को वशीभूत कर लेती है, वहीं राग-रागनियों पर बादल बरस जाते हैं, बुझे दीप जल उठते हैं। प्राचीन ध्वनि मीमांसकों का कहना है कि ध्वनियों, शब्दों और वाणी का उच्चारण यदि ठीक-ठीक न किया गया तो वह वक्ता और श्रोता, दोनों के लिए अनर्थकारी भी हो सकता है।
इसलिए बात को कहने में सच्चाई, एकाग्रता, दृढ़ता और प्रबल इच्छाशक्ति का होना जरूरी है। इसके विपरीत असत्य, अशुद्ध और अनर्गल भाषण से आत्मशक्ति क्षीण होती है, आयु घटती है और कई प्रकार के मानसिक विकार आदमी को घेरे रखते हैं। शब्द और वाणी के अनर्गल पर रहीम का यह दोहा है : 'रहिमन जिह्वा बावरी कह गई सरग पाताल, आपु तो कहि भीतर गई, जूती खात कपाल। आचार्य पाणिनी ने भी वाणी के मिथ्या और अनुचित प्रयोग को बज्र के समान घातक माना है। सारा खेल वाणी का है। प्रेम की वाणी से प्रेम उपजेगा, क्रोध की वाणी क्रोध पैदा करेगी। दुर्योधन के प्रति द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत खड़ा कर दिया, इसलिए कवि सावधान करता है- 'बोलिए तो तब जब बौलिवै की सुधि होय, न तो मुख मौन गहि चुप होय रहिए।
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