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कालिदास से लेकर तुलसीदास तक की रचनाएं पढ़ें तो एहसास होता है कि मनुष्य के भाव अपने मूल से जुड़े रहे
शिवा पंचकरण
मो.-8894973122
कालिदास से लेकर तुलसीदास तक की रचनाएं पढ़ें तो एहसास होता है कि मनुष्य के भाव अपने मूल से जुड़े रहे, लेकिन भाषाएं, बोलियां काल के प्रवाह के साथ मनुष्यों की तरह अपने वस्त्र बदलती रहीं। इसके साथ ही वस्त्र बदले लेखन कला ने, गीत-संगीत ने, कविताओं-कहानियों ने। कई शब्द जुड़े, कई लुप्त हुए, लेकिन सजीव रहीं वो कविताएं और कहानियां जिन्हें कहने से लेकर लिखने तक का लहजा वक्त के साथ बदलता रहा। अर्थात समय का मुहावरा पकडऩा जरूरी है। अब कालिदास से लेकर तुलसीदास जी ने क्या लिखा, क्या बदलाव आया, उस पर बात करने की न हैसियत है, न उतना ज्ञान। आम समाज की तरह बस इतना पता है कि बदलाव आया, धीरे-धीरे आया और अपनी जगह बनाकर बैठ गया। ऐसा ही कुछ आजकल या शायद कुछ दशक पहले हिंदी कविता-कहानियों में भी शुरू हुआ होगा, जिसे आजकल लोग 'नए वाली हिंदी और उसकी लिपि को प्यार से 'हिंगलिश बुलाते हैं
आखिर है क्या यह नए वाली हिंदी और हिंगलिश? तो सरल शब्दों में देवनागरी लिपि में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग नए वाली हिंदी है और हिंदी की कविता-कहानियों को लिखते हुए अंग्रेजी लिपि का प्रयोग करना हिंगलिश है। अरे जैसे अपने तत्सम और तद्भव शब्द होते हैं, कुछ-कुछ वैसा ही। तो क्या हिंदी में इनका प्रयोग वर्जित है? अब हिंदी में तो उर्दू के अल्फा भी इस्तेमाल किए जाते हैं। अनेक बोलियों, भाषाओं के शब्द हिंदी में रचे-बसे हैं। अंग्रेजी को देश में आए कई वर्ष हो गए हैं। इनका इस्तेमाल तो न केवल रोजमर्रा में, बल्कि साहित्य में भी कई वर्षों से हो रहा है। लेकिन जैसा कि होता है, जितने लोग उतनी बातें, जितने विद्वान उतना ज्ञान। किसी के लाख कहने के बावजूद नए वाली हिंदी का प्रयोग थोक में हो रहा है और लगभग हर जगह यह स्वीकार्य है, बशर्ते आप सिर्फ हिंदी ही हिंदी की कार्यशाला न लगा रहे हों।
अंग्रेजी को जन-जन की भाषा बनाने की अंग्रेजों की लालसा को आम भारतीयों ने भारतीय अंग्रेजी का रूप दे दिया या यूं कहूं कि जो शब्द अच्छे लगे, वो रख लिए रोजमर्रा में खूब घिसने के लिए। वर्तमान दौर में युवा लेखक सबसे ज्यादा अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी भाषा में प्रयोग कर रहे हैं और कभी कहीं-कहीं यह जचता भी है। लेकिन क्या अंग्रेजी जबरदस्ती घुसाई जा रही है या यह सब इत्तेफाक है? शायद यह दोनों ही बातें सही हैं। आप खुद सोचिए आपने आखिरी बार कब किसी को कहा था कि मुझे क्षमा करना? 'सॉरी आप शायद सुबह उठकर ही न जाने कितनी बार बोल चुके होंगे।
उसी प्रकार रोजमर्रा में अंग्रेजी के न जाने कितने शब्द हमारे शब्दकोश में रच-बस गए हैं। उदाहरण के तौर पर स्टेशन को हिंदी में स्टेशन और पहाड़ी में टेशन कहने के अलावा क्या कोई और विकल्प है? विकल्प हो भी तो क्या समाज उसे स्वीकार कर पाएगा? शायद कर ले, 5000 साल की सभ्यता ने न जाने क्या-क्या स्वीकार किया है तो फिर यह क्यों नहीं? तो क्या नई वाली हिंदी की कविता-कहानियां खराब हैं? शायद हां, शायद नहीं। लेखक वही कहता है, वैसे ही कहता है, उसी तरह लिखने की कोशिश करता है जो आम समाज में चलता है, आम समाज समझता है। महात्मा बुद्ध कभी बुद्ध नहीं होते, अगर अपने विचार तत्कालीन समाज की भाषा पाली की जगह संस्कृत में देते। महात्मा बुद्ध की तरफ लोगों के आकर्षित होने का सबसे बड़ा कारण ही यह था कि महात्मा बुद्ध का ज्ञान लोगों की भाषा में था।
कालांतर में बौद्ध पंथ इस रास्ते से हटा तो धीरे-धीरे लुप्त होने लगा। लेकिन क्या बुद्ध के पाली प्रयोग करने से संस्कृत लुप्त हुई? ऐसा भी नहीं है। संस्कृत थोड़े समय के लिए अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ती रही होगी, लेकिन कभी लुप्त नहीं हुई। अपनी प्रकृति व व्याकरण का निर्वहन करते हुए भी। भाषाओं-लिपियों का आपस में इनसानों की तरह मेल-मिलाप करना समाज को और करीब लाता है। जैसा कि मैं हिमाचल के संदर्भ में सोचता हूं कि यह कांगड़ी, कुल्लवी, चंबयाली, कहलूरी, यह सब क्या है, यह सब पहाड़ी है और इन सब बोलियों के शब्दों को मिलाकर पहाड़ी का एक बड़ा शब्दकोश बनता है। मिलकर पहाड़ी समृद्ध है और अलग रहकर लुप्त होने की कगार पर। ऐसा ही कुछ नई वाली हिंदी के लिए भी सोचना पड़ेगा। अंग्रेजी को पूरी तरह त्याग पाना आज वैश्वीकरण के दौर में लगभग असंभव है। यह आम समाज की जीभ पर बैठी है, इसलिए प्रयोग में लाई जा रही है। नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। नई वाली हिंदी की कविता-कहानियां भी समाज में स्वीकार्य हैं, लेकिन उसका प्रयोग करते हुए क्या हिंदी के इतने बड़े सागर रूपी इतिहास, भूगोल को अनदेखा करना आज की पीढ़ी के हित में होगा? अगली पीढिय़ां क्या हमसे वही प्र्रश्न नहीं करेंगी जो आज संस्कृत को लेकर हमारे द्वारा पिछली पीढिय़ों से किया जाता है? भाषा के विकास का मूल आधार देशज व विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपनी प्रकृति के अनुरूप ढालकर अपनाने में निहित है। यह प्रवृत्ति केवल हिंदी भाषा के संदर्भ में ही नहीं, हर भाषा के संदर्भ में सही है। परंतु भाषा के मौलिक स्वरूप और गरिमा को बनाए रखना भी जरूरी है।
नई वाली हिंदी में अंग्रेजी के स्वीकार्य शब्द हों तो हिमाचल के आंचलिक शब्द भी हों। नया या सार्वभौमिक होने के जुनून में हमारे पांव अपनी जमीन से उखडऩे नहीं चाहिए। वैसे तो दौर बाजारवाद का है, जो दिखता है, वही बिकता है। या तो हिंदी बस हिंदी है या फिर अनेक भाषाओं का मिश्रण। कविता, कहानियां तो बस किस्से हैं, किसी भी भाषा में आएंगे, लेकिन यह समाज पर निर्भर करता है कि वो क्या चाहता है। हिंदी या फिर नए वाली, विकासशील हिंदी।
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