सम्पादकीय

नई शुरुआत का वक्त

Subhi
22 May 2022 4:14 AM GMT
नई शुरुआत का वक्त
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आर्थिक नीति में पहली बार बदलाव की शुरुआत और फिर एक जुलाई 1991 को रुपए के अवमूल्यन को इकतीस साल हो चुके हैं, इसका मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा। यह एक ऐसा नाटकीय और जोखिम भरा कदम था, जिसकी व्यापक तौर पर निंदा हुई थी।

पी. चिदंबरम: आर्थिक नीति में पहली बार बदलाव की शुरुआत और फिर एक जुलाई 1991 को रुपए के अवमूल्यन को इकतीस साल हो चुके हैं, इसका मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा। यह एक ऐसा नाटकीय और जोखिम भरा कदम था, जिसकी व्यापक तौर पर निंदा हुई थी। विपक्ष इस कदर हमलावर था कि पीवी नरसिंहराव इसका अगला कदम उठाने से रुकना चाह रहे थे। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की 'इसे रोकने' की इच्छा के समर्थन में थे। आरबीआइ के डिप्टी गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन 'उपलब्ध' नहीं थे। और अगले अड़तालीस घंटे के भीतर ही एक बार फिर रुपए के और अवमूल्यन का बिगुल बज गया था! यह दो चरणों वाला नृत्य था और इसकी तैयारी पहले से ही कर ली गई थी और बहुत ही कुशलता के साथ पूरा किया गया था।

इसके बाद जो हुआ, उसे दो शब्दों में विशुद्ध साहस कहा जा सकता है। इसके तुरंत बाद सरकार ने व्यापार नीति सुधार, नई औद्योगिक नीति और लीक से हट कर बजट बनाया था। इस पर दुनिया का ध्यान गया और उसने सरकार के साहस, स्पष्टता और तेजी पर गौर किया। हाथी का नृत्य शुरू हो चुका था।

पिछले तीस साल में जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने उदारवाद के दौर में शुरुआत की, उससे देश को संपत्ति सृजन, नए कारोबार, नए उद्यमों, बड़ा मध्यवर्ग, लाखों रोजगार, निर्यात और सत्ताईस करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने जैसे मामलों में बड़ा लाभ पहुंचा। फिर भी, इसमें कोई संदेह नहीं कि आबादी का बड़ा हिस्सा बेहद गरीबी में जी रहा है।

एक सौ सोलह देशों के वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2021 में भारत एक सौ एकवें स्थान पर है। बड़े पैमाने पर महिलाएं और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जैसा कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वे-5 में उजागर भी हो गया है। शिक्षा पर सालाना रिपोर्ट बता रही है कि नतीजे कितने बदतर हैं। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है। महंगाई लगातार उच्च स्तर पर जा रही है। आय, संपत्ति और लैंगिक असमानताएं बढ़ रही हैं।

लोगों के कई वर्गों को उचित और समान अवसरों से वंचित कर दिया गया है। हम खुली, उदार और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था से अलग नहीं हो सकते हैं। ऐसा करना आत्मघाती होगा। आखिरकार, हमें वैश्विक और घरेलू घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए अपनी आर्थिक नीतियों को फिर से तैयार करने की कवायद करनी चाहिए। इसके लिए 1991 जैसे साहस, स्पष्टता और रफ्तार की जरूरत होती है।

वैश्विक घटनाक्रमों पर विचार करें। अमीर राष्ट्र और अमीर हो गए हैं, उदाहरण के लिए चीन और भारत के बीच खाई और चौड़ी हो गई है। 2022 में चीन की जीडीपी एक सौ सड़सठ खरब अमेरिकी डालर हो जाएगी और भारत की तीस खरब अमेरिकी डालर।

डिजिटल प्रौद्योगिकी इंसान की जिंदगी के हर पहलू पर धावा बोलेगी। डाटा नई दौलत होगा। मशीनी मानव, रोबोट, मशीनें और कृत्रिम मेधा दुनिया पर राज करेंगे और इनसान की भूमिका नए सिरे से परिभाषित होगी। 5जी, इंटरनेट 3.0, ब्लाकचेन, मेटावर्स और अज्ञात आदि नई दुनिया में अपनी जगह बनाते हुए इसे फिर से तय करेंगे।

जलवायु परिवर्तन अपने नतीजे दिखाएगा और मानव जाति इनका सामना करने को मजबूर होगी। हम जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल छोड़ने को मजबूर होंगे और इस धरती पर बचे रहने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के स्रोतों का इस्तेमाल करने के दबाव में होंगे।

घरेलू घटनाक्रमों पर गौर करें। कुल प्रजनन दर गिर कर दो पर आ चुकी है, जो विस्थापन दर से भी नीचे है। पंद्रह साल से कम उम्र की आबादी का अनुपात जो 2015-16 में 28.6 फीसद था, वह 2019-20 में गिर कर साढ़े छब्बीस फीसद रह गया। यह वह बिंदु है, जहां से हमारे जनसांख्यिकीय लाभांश का अंत शुरू होता है।

औसत किसान अपेक्षाकृत ज्यादा पैदावार देता है, पर उसका जीवन जरा नहीं बदला है। उसे लगने लगा है कि खेती अब संभव नहीं रह गई है और उसके बच्चे इसे करना नहीं चाहते। शहरीकरण तेजी से हो रहा है और शहरी बेरोजगारी दर बढ़ती जा रही है। डिजिटलीकरण का विस्तार होता जा रहा है, इसलिए गरीब और मध्यवर्ग/अमीर के बीच बड़ा डिजिटल अंतर पैदा हो गया है।

बहुसंख्यकवाद लोगों के बीच चर्चा और संवाद का विषय बनता जा रहा है और ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ जाएगी। अगर किसी देश की आबादी के बीस फीसद हिस्से को राजनीतिक और आर्थिक ढांचे से बाहर कर दिया जाए तो कोई भी राष्ट्र आर्थिक शक्ति नहीं बन सकता।

मामला फिर से तैयारी के दबाव का है। देश रोजगारविहिन वृद्धि स्वीकार नहीं करेगा, जो पिछले कुछ सालों में रोजगारों के जाने की दर से काफी कम है। वृद्धि की बुनियाद 'नौकरियां' होना चाहिए, रोजगार सृजन से ही सब कुछ ठीक हो जाएगा।

हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने के अहंकारी वादे से लेकर ऐसा फूहड़ तर्क देना कि 'पकौड़ा बेचना' भी रोजगार है, बताता है कि मोदी सरकार ने कड़ी मेहनत करने वाले उन करोड़ों परिवारों का अपमान किया है, जिन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया था और जो अब रोजगार न होने की स्थिति का सामना कर रहे हैं।

कुछ समय के लिए हिंदुत्व की सम्मोहक अपील करके मोदी सरकार बच भले ले, लेकिन जल्दी ही नौजवान यह महसूस करेंगे कि हिंदुत्व (और ध्रुवीकृत और विभाजित समाज) किसी को रोजगार नहीं देने वाला, चाहे वह हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख या किसी भी अन्य धर्म या आस्था को मानने वाला क्यों न हो।

यह विमर्श हमें अपरिहार्य रूप से केंद्र-राज्य संबंधों में बदलते संतुलन की ओर ले जाता है। इससे पहले कभी ये संबंध इतने खराब नहीं रहे, राज्यों की वित्तीय हालत पहले कभी इतनी नाजुक नहीं रही। राज्यों के खुद के संसाधन घटने लगे हैं। जीएसटी को लेकर मोहभंग होता जा रहा है, और यह उसे लागू किए जाने के तरीके की बदौलत है। केंद्र और राज्यों के बीच भरोसा पूरी तरह से टूट चुका है।

बल्कि अब तो ब्रेक्जिट की तरह ही जीएसटी से बाहर निकलने की चर्चा होने लगी है। केंद्र ने राज्यों के विधायी अधिकार क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है और उन अपनी कार्यकारी और वित्तीय शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए राज्यों को चुपचाप काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सिर्फ मोदी सरकार की नीतियां नहीं, बल्कि जिस रास्ते को इसने चुना है, वह भी संघवाद को तबाह करने की ओर जाएगा।


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