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- भारतीय राजनीति का नया...
छह-सात दशक पुरानी एक स्मृति ध्यान में आ रही है। हमारे गांव में हर साल जन्माष्टमी के अवसर पर बहुत बड़ा उत्सव होता था। उसमें गांव के ही कलाकार अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियां भी देते थे और कुछ भाषण भी होते थे। पूरे गांव में एक बुजुर्ग अकाली जत्थेदार भी था। उसको भी जन्माष्टमी में जनता को संबोधित करने का अवसर मिलता था। वह हर साल अपनी एक ही कविता पढ़ता था और उसे तरन्नुम में गाता भी था। उसकी एक पंक्ति मुझे अभी भी याद है। 'हुण राजे नीं जम्मदे रानियां नूं।' उस समय मुझे इसका भीतरी अर्थ तो समझ नहीं आता था, लेकिन हम तालियां ख़ूब पीटते थे क्योंकि उसने हमें पहले ही बुला कर कहा होता था कि हर दूसरी पंक्ति पर ताली बजाना है। लेकिन अब पिछले सात-आठ साल से इसका अर्थ समझ ही नहीं आने लगा है, बल्कि उसका अर्थ दिखने भी लगा है। सामान्य भाषा में इसका अर्थ है कि अब युग बदल गया है। अब राजा का जन्म किसी रानी के पेट से नहीं होता। अंग्रेज़ी वाले इसको अपने ढंग से बताते हैं कि अब राजा रानी के पेट से नहीं, बल्कि मतपेटी के पेट से पैदा होता है। लेकिन जिन दिनों वह जत्थेदार राजा के रानी के पेट से न पैदा होने की घोषणा कर रहा था, उन दिनों नेहरु को हिंदुस्तान का बादशाह कहा जाने लगा था। तब जत्थेदार को आशा रही होगी कि नेहरु के बाद मतपेटी वाले राजाओं का युग आ जाएगा। नेहरु के बाद जत्थेदार जि़ंदा था या नहीं, इसका अब मुझे ध्यान नहीं है, लेकिन जत्थेदार की आशा पूरी नहीं हुई। देश भर में राज परिवार पैदा हो गए। उनके बेटे-बेटियां ही राजे बनने लगे। अलबत्ता अब वे अपने बच्चों को मतपेटी में छिपा कर रखने लगे थे ताकि आम आदमी को लगे कि राजा मतपेटी में से निकला है। राजवंश भी फलते-फूलते रहे और लोकतंत्र को भी किसी प्रकार की हानि नहीं हुई। हां यह जरूर हुआ कि राजवंशों के बच्चे देसी-विदेशी शिक्षा संस्थानों में जरूर घूम आते थे ताकि यहां के आम लोगों को गोरे महाप्रभुओं की तरह आतंकित कर सकें। लेकिन पिछले कुछ साल से शायद उस अकाली जत्थेदार की आशा पूरी होने लगी है।