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झारखंड सरकार ने ‘ जनहित ’ का हवाला देकर ‘ नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज ’ परियोजना की अवधि विस्तार के प्रस्ताव को अस्वीकृत किया है.
by Lagatar News
ग्लैडसन डुंगडुंग
झारखंड सरकार ने ' जनहित ' का हवाला देकर ' नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज ' परियोजना की अवधि विस्तार के प्रस्ताव को अस्वीकृत किया है. इस तरह से विगत 32 वर्षों से विस्थापन के खिलाफ चल रहे आदिवासियों के आंदोलन को दूसरी बार राहत मिली और आंदोलनकारियों के अंदर जोश भर गया है . अब वे कह रहे हैं कि जबतक परियोजना रद्द नहीं होती है, तब तक वे संघर्ष जारी रखेंगे . झारखंड का नेतरहाट पठार क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के तोप अभ्यास हेतु प्रस्तावित ' नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज ' परियोजना भारत की आजादी के बाद प्रारंभ हुई थी . 1954 में मैनूवर्स फील्ड फायरिंग आर्टिलरी प्रैक्टिस एक्ट 1938 के तहत इस प्रस्ताव को लाया गया था, जिसे 1956 की अधिसूचना के द्वारा 308 वर्ग किलोमीटर भू-भाग को अधिसूचित किया गया था. इसमें सात राजस्व गांवों का क्षेत्र शामिल था. साल 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इसका विस्तार किया गया . उसके बाद प्रायः हर साल यहां सैन्य अभ्यास चलता रहा.
वर्ष 1992 में पुनः इसका विस्तार करते हुए इसकी अवधि को 2002 तक किया गया . अधिसूचना के विस्तार के बाद 308 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बढ़ा कर सीधे 1471 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अधिसूचित किया गया . इस तरह से परियोजना का क्षेत्र 7 गांवों से बढ़ कर 245 गांव हो गया, जिसमें लातेहार एवं गुमला जिले के महुआडांड़, विशुनपुर, चैनपुर, डुमरी, घाघरा एवं गुमला प्रखंड आते हैं. जमीन अधिग्रहण होने से यहां के लगभग तीन लाख लोग विस्थापित होंगे, जिसमें 90 प्रतिशत आदिवासी होंगे . इनकी सदियों से रचा ताना-बाना समाप्त हो जायेगा .
साल 1907 में टाटा कंपनी की स्थापना के साथ ही छोटानागपुर के आदिवासी विस्थापन का दंश झेलने के लिए मजबूर हो गये. भारत की आजादी के बाद उनका दर्द कई गुना बढ़ता ही चला गया . सोवियत संघ से उधार में लिये गये नेहरू के 'समाजवाद-पूंजीवाद' विकास मॉडल ने आदिवासी दुनिया को बर्बाद कर दिया . आदिवासियों की जमीन, इलाका एवं प्राकृतिक संसाधनों को कब्जा करने के लिए 'जनहित', ' राष्ट्रहित ' एवं ' विकास ' जैसे शब्दों का उपयोग शक्तिशाली हथियार की तरह किया गया . यही वजह है कि नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज परियोजना के इस विशाल प्रस्ताव को देखकर उस क्षेत्र के आदिवासियों की नींद उड़ गई थी .
वर्ष 1993 में आदिवासियों ने इस विध्वंसकारी परियोजना का सामूहिक नेतृत्व में संगठित विरोध शुरू किया, जो धीरे-धीरे एक शक्तिशाली जनांदोलन में तब्दील हो गया . 22 मार्च 1994 का दिन इस आंदोलन को पहली सफलता मिली, जब आदिवासियों के भारी विरोध की वजह से तोप अभ्यास के लिए जा रहे भारतीय सेना की गाड़ियों को बैरंग लौटना पड़ा . इसके बाद लगभग 10-11 वर्षों तक सैन्य अभ्यास बंद रहा . पुनः वर्ष 2004 में सेना का धमाकेदार प्रवेश हुआ . लोग अचंभित रह गए, लेकिन आंदोलनकारियों ने एक बार फिर से सेना को अपनी प्रतिरोध क्षमता से एहसास करा दिया कि यहां सैन्य अभ्यास करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है . इसके बाद इस क्षेत्र में भारतीय सेना की गाड़ियां कभी नहीं दिखाई दी .
इसी बीच परियोजना अवधि का विस्तार 2002 से बढ़ा कर 2020 कर दिया गया . परियोजना रद्द करने की मांग को लेकर आदिवासियों का आंदोलन जारी रहा . ' केंद्रीय जनसंघर्ष समिति ' के बैनर तले 39 राजस्व गांव के सैकड़ों आदिवासी 21 से 25 अप्रैल 2022 तक नेतरहाट से पैदल चलकर राजभवन पहुंचे . झारखंड के राज्यपाल को ज्ञापन सौंप कर इस परियोजना को रद्द करने की मांग की . उन्होंने दलील दी कि यह क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है, जहां पेसा कानून 1996 लागू है. इस क्षेत्र की ग्रामसभाओं ने परियोजना के लिए जमीन देने से साफ इंकार किया है, इसलिए उनकी आवाज को सुना जाना चाहिए. जनभावना का कद्र करते हुए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने परियोजना अवधि विस्तार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया .
लेकिन यह आदिवासियों को सिर्फ थोड़े समय के लिए राहत देगा . वे तब तक बेचैन रहेंगे, जब तक परियोजना रद्द नहीं होती है .
केंद्रीय जनसंघर्ष समिति का सर्वेक्षण दर्शाता है कि इस परियोजना क्षेत्र में 1964 से 1993 के बीच सामूहिक बलात्कार के कारण 2 महिलाओं की मृत्यु हुई. 28 महिलाओं का बलात्कार किया गया . 56 छेड़खानी के मामले सामने आये . गोला विस्फोट से 30 लोगों की मृत्यु तथा 3 लोग अपंग हो गये. गोला विस्फोट से ही 24 मवेशियों की मृत्यु हुई और 7 मकान धराशायी एवं क्षतिग्रस्त हुए . एक सरना स्थल की बर्बादी हुई . 26 चोरी के मामले सामने आये. 225 लोगों ने फसल की क्षति होने की शिकायत की थी . इसके बावजूद मुकदमे दर्ज नहीं किये गये . यह आदिवासियों के मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन का मामला है .
यह दिलचस्प है कि भारत सरकार ने ' राष्ट्रहित ' का नाम देकर आदिवासियों की जमीन को नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज परियोजना के लिए अधिग्रहण करने की कोशिश की और अब ' जनहित ' के नाम पर झारखंड सरकार ने इसके अवधि विस्तार से इंकार किया है. केंद्र एवं राज्य सरकारों ने विगत सात दशक तक ऐसे ही शब्दों से खेलकर आदिवासियों को बेघर, बेबस एवं लाचार बनाया है . नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज परियोजना को रद्द करते हुए आदिवासियों को न्याय देने का यह सबसे सही वक्त है, जब द्रौपदी मुर्मू के रूप में पहली बार एक आदिवासी को भारत का राष्ट्रपति बनाया गया है. केंद्र सरकार के इस कदम से भारतीय लोकतंत्र पर आदिवासियों का भरोसा कायम रहेगा और उन्हें महसूस होगा कि वे भी ' जनहित ' के महत्वपूर्ण हिस्सा हैं .
Rani Sahu
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