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इस साल, देश आजादी का 75वें साल के साथ-साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की 125वीं जयंती मना रहा है
ज्योतिर्मय रॉय इस साल, देश आजादी का 75वें साल के साथ-साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की 125वीं जयंती मना रहा है. आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर देशभर में 'आजादी का अमृत महोत्सव' मनाया जा रहा है. लेकिन दुर्भाग्य से उसी वर्ष, पश्चिम बंगाल सरकार (West Bengal Government) द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस और स्वतंत्रता संग्राम में बंगाल के योगदान पर तैयार की जा रही झांकी को गणतंत्र दिवस (Republic day) परेड में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई है.
सवाल उठाया जा रहा है कि जिस बंगाल ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला प्रज्वलित की, भारत माता की आजादी के लिए बंगाल के अनगिनत युवक-युवतियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, क्या उस बंगाल को लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में शामिल न करना अनुचित नहीं है? क्या भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बंगाल के योगदान को इस तरह से मिटाया जा सकता है? क्या यह बंगाल का अपमान नहीं है? क्या यह नेताजी सुभाष चंद्र बोस और बंगाल के अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान नहीं है? कुछ सवाल अपनी जगह ठीक हे, लेकिन हर सवाल नहीं.
आजादी के बाद सशस्त्र क्रांतिकारियों के योगदान को कम करके आंका गया
आजादी के बाद यह साबित करने की कोशिश की गई कि हमें आजादी कांग्रेस के अहिंसा आंदोलन से ही मिली है. अंग्रेजों के सम्मान को बचाने के लिए आजादी के बाद भारत के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया. अंग्रेजों ने आजादी का सारा श्रेय कांग्रेस के अहिंसक नेताओं को दिया और सशस्त्र क्रांतिकारियों को गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया. इस नए विकृत इतिहास में स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर आत्माओं की पूरी तरह उपेक्षा की गई. लेकिन सच्चाई यह है कि भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ दो तरह के आंदोलन हुए, एक था अहिंसा आंदोलन और दूसरा सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन.
भारत की स्वतंत्रता के बाद, दिल्ली में बैठे नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को इतिहास में कम महत्व दिया और इसे कई जगहों पर तोड़ा-मरोड़ा भी गया. बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कमला दासगुप्ता ने कहा कि क्रांतिकारियों की विचारधारा थी, 'कम आदमी अधिकतम बलिदान', और महात्मा गांधी की विचारधारा थी. 'अधिकतम आदमी न्यूनतम बलिदान'. लेकिन 1942 के बाद उन्होंने 'अधिकतम व्यक्ति और अधिकतम बलिदान' का मंत्र दिया. सच तो यह है कि भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता.
एक सच यह भी है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जहां सशस्त्र क्रांतिकारियों को कालापानी, शारीरिक यातना और मौत की सजा मिली, वहीं आजादी के बाद अहिंसा आंदोलन से जुड़े नेताओ को सत्ता में बैठने का मौका मिला. अहिंसा आंदोलन से जुड़े नेताओं ने उन सशस्त्र क्रांतिकारी नेताओं के योगदान को कम करने की कोशिश की और अहिंसा आंदोलन और उनसे जुड़े नेताओं का महिमामंडन करके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया.
ज्यादातर सशस्त्र क्रांतिकारियों की कार्यशैली गुप्त होने के कारण अधिकांश सशस्त्र क्रांतिकारी प्रचार से दूर रहे. वे राजनेता कम और स्वाभिमानी ज्यादा थे, जिनका उद्देश्य देश की आजादी थी, सत्ता की भागीदारी नहीं. आजादी के बाद पहली नेहरू सरकार में सभी नेता अहिंसावादी थे. जिन शहीदों के प्रयासों और बलिदानों ने हमें आजादी दिलाई, उनमें से कई को आजादी के बाद भी उचित सम्मान नहीं मिला, उन्हें गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा.
आजादी के बाद बंगाल के क्रांतिकारियों को नहीं मिला इंसाफ
क्या बंगाल के योगदान का उल्लेख किए बिना भारत की स्वतंत्रता का इतिहास लिखा जा सकता है? 'वन्दे मातरम' की ध्वनि से स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले बंगाल को, इतिहास कैसे भुला सकता है! लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के बाद दिल्ली में बैठे नेताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में बंगाल के योगदान को उतना महत्व नहीं दिया, जितना उन्हें देना चाहिए था. स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास को विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया है. कांग्रेस नेताओं की साजिश के कारण, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.
स्वतंत्रता आंदोलन में बंगाल के योगदान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, अंडमान और निकोबार शासन, पोर्ट ब्लेयर के उपलध अभिलेखों के अनुसार 1909 से 1938 तक 585 क्रांतिकारियों को सेलुलर जेल मे भेजा गया था, जिनमे से 398 क्रांतिकारी बंगाल के थे.
क्या दिल्ली के गणतंत्र दिवस परेड में पश्चिम बंगाल की झांकी का न होना नेताजी का अपमान है?
इस बार पश्चिम बंगाल सरकार ने 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बंगाल के योगदान' के बारे में झांकी बनाने का फैसला किया था. पश्चिम बंगाल की झांकी का डिजाइन 6 बार झांकी चयन समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया और चयन समिति के निर्देशन में इसी झांकी का दो त्रि-आयामी मॉडल भी प्रस्तुत किए गए. लेकिन अंत में रक्षा मंत्रालय ने बिना कोई खास कारण बताए राज्य सरकार के झांकी के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. इसको लेकर असंतोष व्यक्त करते हुए, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने प्रधान मंत्री को एक पत्र लिखकर निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया. ममता की चिट्ठी से एक नई सियासी जंग शुरू हो गई है. तृणमूल कांग्रेस ने इसे राजनीतिक साजिश करार दिया है. बंगाल के तमाम अखबारों ने इसकी कड़ी निंदा की. रक्षा मंत्रालय ने साजिश के आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण करना गलत है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व मे केंद्र सरकार ने अब से हर साल नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाने की घोषणा की है, और इसके साथ ही गणतंत्र दिवस समारोह की शुरुआत को भी एक दिन पहले यानि 23 जनवरी से मनाने की निर्णय लिया है. केवल यही नहीं, नेताजी के नाम पर 'सुभाष चंद्र बोस आपदा प्रबंधन पुरस्कार' की भी घोषणा की गई है.
नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले यह जानते हैं की, नरेंद्र मोदी स्वामी विवेकानंद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भक्त हैं. इसलिए उन पर, नेताजी के अपमान का आरोप लगाना निराधार है. जिस तरह से पीएम मोदी ने इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भव्य प्रतिमा लगाने की घोषणा की है, आजाद भारत में शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा. नेताजी की 'सैल्यूट' लेते हुए मूर्ति की कल्पना भी अपने आप में अभूतपूर्व है. अभी तक नेताजी की अधिकांश मूर्ति सामने की ओर इशारा करते हुए 'दिल्ली चलो' की मुद्रा में है. इस बार नेताजी का 'सैल्यूट' लेते हुए मूर्ति का मतलब नेताजी के 'दिल्ली चलो' आह्वान की पूर्ण प्राप्ति है.
इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित कर मोदी ने एक तीर से दो निशाने लगाए. स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में जहां नेताजी को अभूतपूर्व श्रद्धांजलि दी गई, वहीं स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अज्ञात सशस्त्र क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि के साथ-साथ उनके योगदान को राष्ट्रीय मान्यता भी दी गई. नेताजी सुभाष बोस स्वतंत्रता आंदोलन के सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रतीक हैं.
कुछ सुझाव
जिस प्रकार से झांकी प्रकरण हुआ, उससे बंगाल के लोग अवश्य आहत हुए हैं, यह स्वाभाविक भी है. क्योंकी, आजादी की लड़ाई की अगुआई बंगाल ने की थी. बंगाल की जनता ने आजादी की लड़ाई में जितना खून बहाया है, उतना खून किसी भी जाति ने नहीं बहाया है. इसलिए इस बार दिल्ली के गणतंत्र दिवस पर पश्चिम बंगाल की झांकी का होना जरूरी था. लेकिन मोदी द्वारा नेताजी के संबंध में लिया गया निर्णय, खासकर इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने के निर्णय के बाद, बंगाल के लोगों को जरूर ढाढ़स पहुंचेगा.
होना यह चाहिए की, दिल्ली के गणतंत्र दिवस परेड के उपलक्ष्य मे अगर किसी विशेष राज्य की लोक कला, संस्कृति और इतिहास से जुड़े विषय पर झांकी बनाने का विचार केंद्र के पास हो तो, झांकी बनाने के लिए उस राज्य को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए. यदि किसी कारणवश राज्य उस झांकी को बनाने मे असमर्थ है, केंद्र उस स्थिति में झांकी बनाने के लिए उचित कदम उठा सकता है.
दूसरा, नेशनल वर मेमोरियल की तरह, सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति के पास स्वतंत्रता सेनानियों की नामों का शिलालेख होना चाहिए. देश के लिए प्राण निछावर करने वाले उन यह सरकार की जिम्मेदारी हे. केंद्र मे मोदी 'नेशनल वॉर मेमोरियल' में जिस प्रकार हमारे वीर सैनिकों की नाम शिलालेख अंकित है, उसी प्रकार नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति को केंद्र कर, देश के लिए प्राण निछावर करने वाले उन सशस्त्र क्रांतिकारियों के साथ साथ स्वतंत्रता सेनानियों के नामों का भी शिलालेख होना चाहिए. जिस तरह 'राष्ट्रीय युद्ध स्मारक' में शहीद हुए हमारे वीर जवानों का नाम अंकित है, उसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा के केंद्र में, देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले हमारे सभी सशस्त्र क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के नाम का शिलालेख भी होना चाहिए. क्या हम स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति श्रद्धा अर्पण करने के लिए इतना भी नहीं कर सकते!
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