सम्पादकीय

चौतरफा गहरे संकट से घिरा नेपाल: संसद में बहुमत खोने के बावजूद पीएम ओली उलजुलूल फैसले लेने से नहीं आ रहे बाज

Triveni
5 July 2021 5:31 AM GMT
चौतरफा गहरे संकट से घिरा नेपाल: संसद में बहुमत खोने के बावजूद पीएम ओली उलजुलूल फैसले लेने से नहीं आ रहे बाज
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नेपाल एक बार फिर राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक के साथ-साथ विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रहा है।

भूपेंद्र सिंह| नेपाल एक बार फिर राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक के साथ-साथ विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रहा है। नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के कुछ हालिया फैसलों ने न केवल नेपाल को उपहास का पात्र बनाया, बल्कि नेपाली लोकतंत्र की बुनियाद भी हिला दी है। नेपाल में लोकतंत्र की पहली बयार 1951 में चली, जब 104 वर्ष की राणाशाही का अंत हुआ और नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी। राणा वंश से पूर्व शाहवंश का शासन था। वर्ष 1955 में महाराजा त्रिभुवन की मृत्यु के बाद महाराजा महेंद्र का राजतिलक हुआ। फिर 1959 में संविधान लागू किया गया और आम चुनाव हुए। चुनाव में नेपाली कांग्रेस को बहुमत मिला, लेकिन राजवंश को नई लोकतांत्रिक व्यवस्था रास नहीं आ रही थी।

प्रशासनिक भूल के कारण प्रचंड को इस्तीफा देना पड़ा था
लिहाजा राजा महेंद्र ने सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया। संसद एवं संविधान भी भंग कर दिए गए और दल विहीन पंचायत प्रणाली शुरू की गई। लंबे समय तक ऐसी राजनीतिक उठापटक से जूझते हुए अप्रैल 2008 में आखिर राजशाही की आधिकारिक तौर पर समाप्ति हुई। संवैधानिक सभा के लिए चुनाव हुए। जुलाई 2008 में माओवादी नेता प्रचंड के नेतृत्व में मिलीजुली सरकार का गठन हुआ। नेपाली कांग्रेस ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। एक प्रशासनिक भूल के कारण प्रचंड को तब इस्तीफा देना पड़ा, जब मई 2009 में उन्होंने सेनाध्यक्ष रूकमांगद कटवाल को पद से बर्खास्त कर दिया था।
ओली को 'भारत समर्थक' नेता माना जाता था, सीमा और जल विवाद के चलते तनातनी जैसी स्थिति बनी
यह भी एक तथ्य है कि नेपाली कम्युनिस्ट उस चीनी वामपंथी विचार को गलत साबित कर चुके हैं कि सत्ता का जन्म बंदूक की नोक से होता है। जब प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी 'एमाले' ने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया तो लगा था कि उनके नेतृत्व में स्थायी सरकार बनेगी। चुनाव नतीजों ने जनता को भी उत्साहित किया, क्योंकि पांच दशकों के बाद पहली बार किसी ऐसी सरकार का गठन हुआ, जो बिना किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा करती दिख रही थी। एनसीपी ने दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की। बड़ा दल होने के नाते केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री बनाया गया। वहीं संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी की कमान प्रचंड को सौंपी गई। हालांकि नेपाल में संवैधानिक समस्याओं, मर्यादा, आचार संहिता और मूल्यों का इतना ह्रास कभी देखने को नहीं मिला, जितना संयुक्त कम्युनिस्ट नेताओं के कार्यकाल में दिखा। ओली को पहले 'भारत समर्थक' नेता माना जाता था, लेकिन सत्ता मिलते ही उन्होंने सीमा और जल विवाद जैसे गड़े मुर्दे उखाड़ने शुरू कर दिए। उनके रवैये के कारण कई बार सीमा पर तनातनी जैसी स्थिति बनी।
नेपाल सरकार द्वारा भारत का नया नक्शा जारी कर संकट पैदा कर दिया था
मई 2020 में जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने लिपुलेख से धारचूला के बीच सड़क का उद्घाटन किया तो नेपाल सरकार द्वारा देश का नया नक्शा जारी कर एक अजीब संकट पैदा कर दिया गया। मार्च 1816 की सुगौली संधि का हवाला देकर ओली ने कथित तौर पर अपनी जमीन वापस मांगी। यह वह दौर था जब नेपाल के तराई इलाकों के नागरिकों को भयंकर यातना एवं अभावों से जूझना पड़ा था। मधेशियों के समर्थक दलों को ओली सरकार के विरुद्ध कई महीने संघर्ष करना पड़ा। वही ओली सरकार अब अल्पमत में आने के बाद तराई के संगठनों की मदद से ही वजूद बनाए हुए है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- संसद भंग होने के बाद कैबिनेट विस्तार अवैध
यह तब है जब ओली ने ही राजनीतिक अवसरवाद के चलते पहले मधेशियों की पार्टी समाजवादी जनता पक्ष में विभाजन कराया और उपप्रधानमंत्री समेत दर्जनों मंत्रियों को शपथ दिलाई। सुप्रीम कोर्ट ने इनमें से 20 मंत्रियों की नियुक्ति रद कर उन्हें असंवैधानिक करार दिया। उसका कहना था कि संसद भंग होने के बाद कैबिनेट विस्तार अवैध है। चूंकि कोई भी कार्यवाहक सरकार चुनाव की घोषणा के बाद मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं करती, इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोकतंत्र के पक्ष में बताया जा रहा है, लेकिन यह कहना कठिन है कि भविष्य का घटनाक्रम नेपाल में लोकतंत्र को मजबूती देगा।
एनसीपी में मतभेद के पीछे ओली का अलोकतांत्रिक रवैया जिम्मेदार
इससे पहले एनसीपी में मतभेद और दूरी के पीछे भी ओली का अलोकतांत्रिक और मनमाना रवैया ही जिम्मेदार माना गया। उन्होंने अपने विरोधियों से निपटने और अपने हितों की पूर्ति में ही पूरी ऊर्जा लगा दी है। इसके लिए उन्होंने चीन का सहारा लेने से भी गुरेज नहीं किया। फिर भी वह प्रतिनिधि सभा यानी संसद का विश्वास नहीं हासिल कर सके। परिणामस्वरूप अब अल्पमत सरकार चला रहे ओली ने नवंबर में चुनाव कराने की घोषणा की है। अब देखना यही होगा कि चुनाव नतीजे क्या कहते हैं?
संसद में बहुमत खोने के बावजूद ओली अभी भी बाज नहीं आ रहे
संसद में बहुमत खोने के बावजूद ओली अभी भी बाज नहीं आ रहे हैं। उनका आचरण प्रधानमंत्री पद की गरिमा को गिराने के साथ ही नेपाल को शर्मसार करने वाला है। वैसे तो माक्र्सवादी स्वयं को नास्तिक मानते हैं, लेकिन ओली ने न केवल भगवान राम की महत्ता को स्वीकारा, बल्कि भारत से धार्मिक प्रतिस्पर्धा में नेपाल को श्रीराम की वास्तविक जन्मभूमि होने का अटपटा दावा तक कर दिया। अपने उलजुलूल बयानों में उन्होंने यहां तक कह दिया कि योग का उद्भव भी नेपाल में ही हुआ था।
नेपाल आर्थिक मोर्चे पर भी संकट से गुजर रहा
आज नेपाल आर्थिक मोर्चे पर भी संकट से गुजर रहा है। विश्व बैंक के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसे में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। लंबे समय से नेपाली नागरिकों का काम के सिलसिले में बाहर जाना लगभग बंद हो गया है। तकरीबन एक लाख से अधिक नेपाली नागरिक स्वदेश आ चुके हैं। ध्यान रहे कि नेपाली अर्थव्यवस्था में प्रवासी नेपालियों के अंशदान की अहम भूमिका रही है। नेपाल के मौजूदा हालात के कारण कम्युनिस्ट दलों की बहुत किरकिरी हो रही है, जिन्हें राजशाही का एक सशक्त विकल्प माना गया था। यही कारण है कि नेपाल में अब राजशाही वापस लाने के पक्ष में भी कुछ आवाजें उठनी लगी हैं।


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