- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- न आदतां जांदियां ने
x
वारिस शाह ने सही फरमाया था कि ना आदतां जांदियां ने, पावें कटिए कटियां पोरियां पोरियां वे। इसी बात को उर्दू के मशहूर शायर •ाौक ने कुछ इस तरह कहा है कि ‘•ाौक देख दुख्तर-ए-र•ा को न मुंह लगा, छुटती नहीं है मुंह से ये काफिर लगी हुई।’ अब एक सूफी की नैतिकोक्ति और शायर के कहने के अन्दाज में कुछ तो फर्क होगा ही। एक जहां गन्ने की मिसाल दे रहा है तो वहीं दूसरा सोमरस से अपनी बात रख रहा है। जाहिर है कि एक शायर एक सूफी से ज्यादा व्यावहारिक होगा। उसे पता है कि आम आदमी कौन से उदाहरण से जल्दी समझेगा। पर आदतें न इन दोनों की बातें सुनने से छूट सकती हैं और न मार खाकर। अन्यथा न ठरकी कभी जूते खाते और न कभी शराबी नालियों में गिरे होते या कुत्ते उनके मुंह चाट कर उन्हें जगाते। मनुष्य के चरित्र से याद आया कि आदतें व्यक्तिगत भी हो सकती हैं और सामूहिक भी। मेरे दो परिचित हैं। दोनों ही ऊंचे पदों से सेवानिवृत्त हैं। एक तो नौकरी की ऐसी आदत थी कि आईएएस से सेवानिवृत्त होकर भी चुनाव जीतने के बाद बतौर विधायक लोगों की वैसी ही सेवा कर रहे हैं, जैसी पैंतीस साल की नौकरी के दौरान की थी। प्रदेश प्रशासनिक सेवा में आने से पहले उन्होंने अपना करियर बतौर टेलीफोन ऑपरेटर शुरू किया था। पचास साल बाद भी आज तक वह अपनी ‘हैलो…हैलो…’ कहने की आदत नहीं छोड़ पाए हैं। दूसरे सज्जन अपने पिता की सेवा काल के दौरान मृत्यु की वजह से करुणामूलक आधार पर पुलिस महकमे में थानेदार हुए थे। सारी उम्र अपनी थानेदारी की आदत के कारण अठतीस साल की नौकरी में केवल दो प्रमोशन ही पा सके। एसपी बनने के बावजूद लोगों से किसी थानेदार की तरह ही पेश आते रहे। एक बार पुलिस मैदान में उनकी अनुमति से आयोजित विश्व पुस्तक मेले के दौरान एक प्रकाशक द्वारा उन्हें घास न डालने की वजह से वे इतने नाराज हो गए कि दूसरे दिन ही दो हफ्ते तक चलने वाले मेले को चलता कर दिया। एक अन्य घटना में उन्होंने अपने एसपी के कार्यकाल के दौरान आयोजित अखिल भारतीय पुलिस खेलों के दौरान फाइनल में अपनी टीम को हारता हुआ देखकर, विरोधी टीम के कप्तान की कुटाई कर दी और मैच जीत लिया।
यहां तक होता तो भी ठीक था। वह सारी उम्र दूसरे विभागों के अधिकारियों को अपनी थानेदारी का रौब दिखाते रहे। उनका तकिया कलाम था, ‘तुम मुझे अच्छे से जानते नहीं हो। मैं बंदों को कहीं भी ठीक कर देता हूं।’ एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। इसलिए लोग उनसे एक निश्चित दूरी बनाए रखते थे। पर सेवानिवृत्ति के बाद भी उनकी थानेदारी की आदत गई नहीं है। आज भी जहां भीड़ देखते हैं, लाइन बनवाना शुरू कर देते हैं। आर्यावर्त की सामूहिक आदतों में लोगों का भीड़ होना सतयुग से लेकर आज तक बराबर बना हुआ है। चेतना का मंत्र जपने वाले देश में एक हांके की जरूरत होती है कि ‘संतोषी मां’ जैसी सी ग्रेड धार्मिक फिल्म सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ देती है या मूर्तियां दूध पीना शुरू कर देती हैं। सारी उम्र पाप करने के बाद भी एक गंगा स्नान आदमी को पवित्र कर देता है या गंगा में अस्थियां प्रवाहित होते ही मृतक की आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेती है। रामनवमी के जुलूस में दूसरे धर्म के लोगों पर हिंसा या ताजिए के दौरान छाती पीटना या अपने को घायल करना धार्मिकता के परिचायक हैं। भगवान पर भरोसा करने वाला देश चुनावों के दौरान यह तो पूछना शुरू कर देता है कि प्रधान सेवक बनाम चौकीदार का विकल्प क्या है? पर कभी अपनी चेतना या सजगता पर भरोसा करते हुए ईमानदार, परिश्रमी और कत्र्तव्यनिष्ठ उम्मीदवार का चुनाव नहीं करता। लेकिन जब कोरोना काल में तालियां-थालियां बजने लगती हैं तो नाना पाटेकर के ‘क्रांतिवीर’ के इस डायलॉग की जरूरत भी नहीं पड़ती कि एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
Next Story