सम्पादकीय

नेहरू स्मृति: देहरादून तो कभी नहीं भूलेगा राष्ट्र नायक को

Gulabi
14 Nov 2021 12:29 PM GMT
नेहरू स्मृति: देहरादून तो कभी नहीं भूलेगा राष्ट्र नायक को
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नेहरू स्मृति
आधुनिक भारत के शिल्पी पंडित जवाहर लाल नेहरू का कद छोटा दिखाने के लिए कोई चाहे कितनी भी गगनचुम्बी प्रतिमाएं बना डाले या महापुरूषों के गढ़े हुए मुर्दे उखाड़ डाले, मगर नेहरू का कद छोटा होने वाला नहीं है। कम से कम पहाड़वासियों और खासकर देहरादूनवासियों के दिलों में नेहरू की यादें दफन होने वाली नहीं हैं, क्योंकि नेहरू का पहाड़ों से प्रेम जगजाहिर था। देहरादून तथा यहां की जेल तो नेहरू के लिए घर जैसे ही थे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम चार दिन देहरादून में ही बिताए थे।
अपनी आत्मकथा में उन्होंने इसका जिक्र भी किया है। उन्होंने सर्वाधिक दिन अल्मोड़ा जेल में बिताए थे। देहरादून में ही नेहरू ने अपने कालजयी ग्रन्थों के अंश लिखे। नेहरू ने इसी देहरादून से राजनीति के क्षेत्र में सबसे पहले बड़ी छलांग लगाई थी। नेहरू ही क्यों उनके पिता मोतीलाल नेहरू और मसूरी से जुड़े किस्से पुराकथाएं बनीं। उनकी बेटी और नाती और उनके बच्चों की स्कूलिंग भी इसी देहरादून में हुई।
देहरादून से ही लगाई नेहरू ने बड़ी राजनीतिक छलांग
नेहरू जी ने राजनीति पहली लम्बी छलांग देहरादून में ही रखी थी। दरअसल, सन् 1920 में जब देहरादून में कांग्रेस ने राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया तो उसकी अध्यक्षता जवाहर लाल नेहरू ने ही की थी। विलायत से लौटने के बाद उनका यह पहला राजनीतिक कार्यक्रम था। इस सम्मेलन में लाला लाजपत राय और किचलू जैसे बड़े नेता शामिल हुए थे। सन् 1922 में भी देहरादून में एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित हुआ और उसकी अध्यक्षता भी पंडित नेहरू ने ही की थी।
उस सम्मेलन में सरदार बल्लभ भाई पटेल और चितरंजन दास जैसे बड़े नेताओं ने भाग लिया था। देहरादून और यहां की जेल नेहरू के लिए घर जैसे ही थे। एक बार जब अफगान प्रतिनिधि मण्डल देहरादून पहुंचा तो नेहरू को जिला छोड़ने का आदेश हुआ, क्योंकि जिस चार्लविले होटल में नेहरू ठहरे थे, उसी में अफगान प्रतिनिधि मण्डल को भी ठहराया गया था। देसी रियासतों में लोकतांत्रिक आन्दोलनों के लिए कांग्रेस द्वारा गठित ''ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कान्फ्रेंस'' के पहले अध्यक्ष नेहरू ही थे और उनके बाद पट्ठाभि सीतारमैया अध्यक्ष बने थे। टिहरी का प्रजामण्डल इसी संगठन से सम्बद्ध था।
उत्तराखण्ड से जुड़ी हैं नेहरू की यादें
नेहरू की उत्तराखण्ड और खासकर देहरादून से कई यादें जुड़ी हुई हैं। सन् 30 के दशक में उन्होंने श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में कहा था कि उत्तराखण्ड की विशेष भौगोलिक परिस्थिति के साथ ही अलग सांस्कृतिक पहचान है, इसलिए क्षेत्रवासियों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने का हक है।
उत्तराखण्ड के बारे में इस तरह की टिप्पणी करने वाले वह पहले राष्ट्रीय नेता थे। बाद में 1952 में नेहरू के इस वाक्य की प्रासंगिकता तब सामने आई जबकि कामरेड पी.सी. जोशी की अध्यक्षता में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने अलग उत्तराखण्ड राज्य की मांग कर डाली। नब्बे के दशक में उत्तराखण्ड आन्दोलन में नेहरू का यह सूक्ति वाक्य भी आन्दोलनकारियों के काम आया। हिमाचल को पंजाब से अलग राज्य बनाने की परमार की मुहिम को भी नेहरू का ही आशिर्वाद प्राप्त था।
नेहरू उत्तराखण्ड से भावनात्मक तौर पर जुड़े रहे। जेल जीवन के अलावा भी उनका यहां निरन्तर आना-जाना रहा है। उन्हें पहाड़ों की रानी मसूरी भी काफी पसन्द थी। वह अपने पिता मोतीलाल नेहरू और माता स्वरूप रानी के साथ सबसे पहले 1906 में मसूरी तब आए थे जब वह 16 साल के थे। उसके बाद वह अपने माता पिता के अलावा बहन विजय लक्ष्मी पंडित, बेटी इंदिरा गांधी और नातियों के साथ आते जाते रहे। अपने जीवन के कुछ अन्तिम पल उन्होंने यहां बिताए थे।
27 मई 1964 को मृत्यु से एक दिन पहले नेहरू देहरादून से वापस दिल्ली लौटे थे। दरअसल वह कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में हल्का दौरा पड़ने के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए 23 मई 1964 को देहरादून पहुंच गए थे। अपने प्रवास के दौरान उन्होंने मसूरी और सहस्रधारा की सैर भी की।
देहरादून का सर्किट हाउस जो आज राजभवन बन गया, नेहरू के आतिथ्य का गवाह है। नेहरू के हाथ से लिखा हुआ प्रशस्ति पत्र आज भी सर्किट हाउस की दीवार पर चिपका हुआ है। हालांकि उस याद पर भी न जाने कब पानी फेर दिया जाए। तत्कालीन विधायक गुलाबसिंह के आमंत्रण पर नेहरू चकराता भी गए थे जहां उन्होंने प्रकृतिपुत्रों की जनजातीय संस्कृति का करीब से आनन्द उठाया।
कालजयी ग्रन्थ की शुरुआत देहरादून में की थी
कहा जाता है कि महात्मा गांधी को सरदार पटेल से अधिक नेहरू इसलिए भी पसन्द थे कि वह धारा प्रवाह अंग्रेजी और हिन्दी बोलने के साथ ही उनमें लेखन की अद्भुत क्षमता थी और इसके लिए वह बहुत अध्ययन करते थे। इसी वजह से वह भारत से बाहर भी सबसे लोकप्रिय भारतीय नेता थे।
नेहरू जी ने एक दर्जन से थोड़े ही कम ग्रन्थ लिखे जिनमें डिस्कवरी ऑफ इंडिया, एन ऑटोबाइग्रेफी ( टुवार्ड्स फ्रीडम)ए ग्लिम्पसेज ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री, लेटर फाॅर नेशन, लेटर फ्राम अ फादर टु हिज डाॅटर एवं द यूनिटी ऑफ इंडिया जैसे कालजयी ग्रन्थ शामिल हैं। इनमें से एन ऑटोबाइग्राफी की शुरुआत उन्होंने देहरादून जेल से ही की थी। इस ग्रन्थ में उन्होंने पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य और देहरादून का उल्लेख किया है।
भारत के लिए नेहरू की जेल की कोठरी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि नेहरू को अपनी विख्यात पुस्तक "डिस्कवरी आफ इण्डिया" लिखने की यहीं सूझी थी और उस पुस्तक के अधिकांश हिस्से इसी कोठरी में लिखे गए थे। नेहरू को उनकी पुत्री इन्दिरा गांधी इसी वार्ड में मिलने आती थी।
आजादी की 75वीं वर्षगांठ के जश्न में नेहरू की उपेक्षा साफ नजर आ रही है। लगता है जैसे नेहरू ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अपने बाप-दादा के वैभव का लुत्फ उठाने के सिवा कुछ नहीं किया और जो कुछ किया भी वह देशहित में नहीं किया।
सच है कि पैतृक वैभव की उनके पास कमी नहीं थी। इलाहाबाद का आनन्द भवन इसका गवाह है, जिसे बाद में कांग्रेस को दे दिया गया। उनके पिता मोती लाल देश के चोटी के वकील थे और दादा गंगाधर नेहरू दिल्ली के अंतिम कोतवाल थे। लेकिन सच्चाई की गवाह लखनऊ, देहरादून, अल्मोड़ा आदि की खामोश जेलें बिन कहे सच्चाई बयां करती हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान नेहरू 3,259 दिन तक जेल में रहे।
उन्होंने सबसे पहले लखनऊ जेल में 6 दिसम्बर 1921 से लेकर 3 मार्च 1922 तक कुल 88 दिन काटे। उनको जब नवीं बार गिरफ्तार किया गया तो कुल 1041 दिन अल्मोड़ा जेल में रखा गया। देहरादून की पुरानी जेल के एक वार्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पण्डित नेहरू को 4 बार कैद कर रखा गया था। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान नेहरू को सबसे पहले 1932 में देहरादून जेल के इस वार्ड में रखा गया था। उसके बाद 1933,1934 और फिर 1941 में उन्हें यहां रखा गया था।
नेहरू परिवार को देहरादून से गहरा नाता रहा
नेहरू ही नहीं पूरे नेहरू परिवार को देहरादून-मसूरी से विशेष लगाव रहा। देखा जाए तो कांग्रेस में होते हुए भी मोतीलाल नेहरू ने अपनी ''इण्डिपेंडेंट पार्टी'' की नींव भी देहरादून में ही रखी थी। गया काग्रेस में जाने से पहले इस पार्टी के सभी नेता देहरादून में एकत्र हुए थे और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुई बैठक में नई पार्टी के गठन का प्रस्ताव पारित हुआ था।
मसूरी के लोग मोतीलाल को शायद ही कभी भूलें! सर्वविदित है कि मसूरी के माॅल रोड पर हिन्दुस्तानियों का प्रवेश वर्जित था। सड़क के प्रवेश द्वारा पर ही बोर्ड लटका हुआ होता था जिसमें लिखा होता था कि ''इंडियन्स एण्ड डाॅग्स आर नाॅट अलाउड''। मोतीलाल नेहरू मसूरी प्रवास के दौरान सदैव जुर्माना भर कर माॅल रोड की प्रातः कालीन सैर कर अंग्रेजों के गुरूर पर प्रहार करते थे।
नेहरू के नाती राजीव और संजय गांधी दून स्कूल के छात्र रहे। राहुल गांधी और प्रियंका का भी काफी वक्त दून स्कूल में गुजरा। प्रियंका वाड्रा ने भी अपने बच्चे इसी इसी स्कूल में पढ़ाए। नेहरू के दोनों नाती राजीव और संजय गांधी देहरादून के ही दून स्कूल में पढ़े थे। नेहरू की बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित और करीबी रिश्तेदार बी.के.नेहरू ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित आवासों पर जीवन की अंतिम सांसें ली थी।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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