सम्पादकीय

विरोध की जिद छोड़ें बिना आंदोलित किसान और सरकार के बीच वार्ता नहीं पहुंचेगी सकारात्मक नतीजे पर

Gulabi
30 Nov 2020 2:00 AM GMT
विरोध की जिद छोड़ें बिना आंदोलित किसान और सरकार के बीच वार्ता नहीं पहुंचेगी सकारात्मक नतीजे पर
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किसान आंदोलन वस्तुत: एक जिद का रूप ले चुका है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। नए कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में आकर डेरा डालने वाले किसान संगठनों और भारत सरकार के बीच होने वाली बातचीत किसी सकारात्मक नतीजे पर तभी पहुंचेगी जब किसान इस बातचीत में अपने मनमाफिक नतीजे हासिल करने की जिद छोड़ेंगे। उनकी ओर से यह कहना एक प्रकार से सरकार पर बेजा दबाव बनाने की ही रणनीति है कि वे बिना किसी शर्त के बातचीत करेंगे और जहां पर हैं वहीं बातचीत करेंगे। यह रुख-रवैया ठीक नहीं। यह कुछ वैसा ही रवैया है जिसका परिचय उन्हें उकसाकर सड़कों पर उतारने वाले पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह देते आ रहे हैं। अमरिंदर सिंह ने जिस तरह हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल से बात करना भी उचित नहीं समझा वह हैरान करने वाला है। यह रवैया नए सिरे से यह बताता है कि किसानों को आगे कर किस तरह संकीर्ण राजनीति की जा रही है।

किसान आंदोलन वस्तुत: एक जिद का रूप ले चुका है। जब खुद प्रधानमंत्री नए कृषि कानूनों के जरिये किसानों को कई अधिकार मिलने की बात रेखांकित कर रहे हैं और सरकार के स्तर पर बार-बार यह कहा जा रहा है कि अनाज बेचने की किसी पुरानी व्यवस्था को खत्म नहीं किया गया है, बल्कि एक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण किसानों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया है तब नए कानूनों के विरोध का औचित्य समझना कठिन है।

ऐसा लगता है कि पंजाब के किसान खुद को उन आढ़तियों के चंगुल में ही बनाए रखने में अपना हित देख रहे हैं जो उन्हें बरगलाने में लगे हुए हैं। यदि किसानों को बरगलाया नहीं गया होता तो उनके दिल्ली कूच करने की कहीं कोई जरूरत ही नहीं थी। दिल्ली में जिस तरह जगह-जगह डेरा डालकर लोगों को तंग किया जा रहा है उससे कोई बेहतर नतीजे शायद ही निकलें। किसानों को यह स्मरण रखना चाहिए कि उन्हीं की आवाज सुनी जाती है जो जनता की सहानुभूति अर्जित करने में सक्षम हो जाते हैं। किसान संगठनों की ओर से पहले पंजाब और अब दिल्ली-एनसीआर में जो कुछ किया जा रहा है उससे इसके आसार कम ही हैं कि आम जनता की किसानों के प्रति सहानुभूति बढ़ेगी।


उचित यह होगा कि किसान इस पर नए सिरे से विचार करें कि आखिर नई व्यवस्था से उन्हें क्या नुकसान हुआ है अथवा हो रहा है और फिर किसी फैसले पर पहुंचें। यदि उन्हें इस साल कोई नुकसान नहीं हुआ तो यह बेजा आशंका क्यों उत्पन्न की जा रही है कि आगे किसानों का अहित होने जा रहा है? जब तमाम अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि नए कानून किसानों के लिए नई संभावनाएं खोलने का काम करेंगे तो उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं।


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