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पूरे अफ्रीका महाद्वीप को हाशिये पर रखने की प्रवृत्ति खतरनाक है।
हालांकि इस समय विश्व का अधिकांश ध्यान पूर्वी यूरोप व वहां भी विशेषकर यूक्रेन पर केंद्रित है, पर यदि यह पूछा जाए कि लंबे समय से सबसे अधिक समस्याओं से कौन-सा क्षेत्र जूझ रहा है, तो निश्चय ही यह अफ्रीका महाद्वीप है। पहले कहा जाता था कि उत्तरी अफ्रीका की समस्याएं अपेक्षाकृत कम हैं। मुख्य समस्याएं 'उप-सहारा अफ्रीका' क्षेत्र में हैं, यानी उस क्षेत्र में, जो सहारा रेगिस्तान में या उसके दक्षिण में है। अफ्रीका का अधिकांश हिस्सा उप-सहारा क्षेत्र में ही है। आंतरिक हिंसा व अकाल से यह क्षेत्र अधिक प्रभावित रहा है।
हाल के समय में उत्तरी अफ्रीका के बड़े क्षेत्रों, जैसे लीबिया व मिस्र की स्थिति में भी बहुत गिरावट आई है व इनकी समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि युद्ध व आंतरिक हिंसा ने अफ्रीका में सर्वाधिक क्षति की है। कांगो, नाइजीरिया, सूडान, सोमालिया, लीबिया, इथियोपिया जैसे कई देश आंतरिक हिंसा के चलते बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए हैं। इनमें से अनेक देशों में हिंसा भड़काने में वहां की पूर्व औपनिवेशिक ताकतों ने भी भूमिका निभाई है।
लीबिया कभी अपनी तेल संपदा के कारण बहुत समृद्ध था, जिसका लाभ पड़ोस के चाड व माली जैसे निर्धन देशों को भी मिल जाता था। पर लीबिया में गृहयुद्ध भड़कने के बाद इन पड़ोसी देशों में भी निर्धनता व भूख की समस्या बहुत बढ़ गई है। पैट्रिस लुमुम्बा जैसे अति लोकप्रिय नेता यदि अफ्रीका में भूख व गरीबी दूर करने का सपना साकार नहीं कर सके, तो इसका जिम्मेदार पश्चिमी देश व पूर्व औपनिवेशिक ताकतें रही हैं। एक समय था, जब मिस्र, सूडान व मोरक्को जैसे अफ्रीकी देश समृद्ध थे।
अफ्रीका में मुख्य समस्याएं तब शुरू हुईं, जब बाहर से आए आक्रामक गोरे व्यापारियों ने कुछ स्थानीय स्वार्थी तत्वों की सहायता से पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के आसपास गुलाम व्यापार आरंभ किया। इसमें बहुत हिंसा हुई व जिन अफ्रीकियों का अमेरिकी महाद्वीप में गुलामी के लिए अपहरण किया गया, उनमें से लाखों की मौत हो गई। इसके बाद औपनिवेशिक ताकतों की क्रूर हिंसा का क्रम आरंभ हो गया। 19वीं शताब्दी के अंतिम दिनों में यह अपने चरम पर पहुंचा, जब विभिन्न पश्चिमी ताकतों ने अफ्रीका को आपस में बांट लिया।
औपनिवेशिक ताकतों की एक नजर जहां अफ्रीका के मूल्यवान खनिजों पर थी, वहीं दूसरी नजर अपनी जरूरत के खाद्यों व कच्चे माल के उत्पादन के लिए वहां की धरती के उपयोग पर भी थी। उन्होंने अफ्रीकी संसाधनों का दोहन इस तरह से किया कि उसकी समृद्धि के आधार में जो परंपराओं का ताना-बाना था, वह टूटने लगा। वहां के परंपरागत ज्ञान में इस बात पर ध्यान दिया जाता था कि स्थानीय हित के लिहाज से संसाधनों का कम दोहन हो। जहां उपजाऊ भूमि व जल संसाधन अधिक थे, वहां नियमित खेती होती थी और विविध खाद्यों व फसलों को उगाने पर जोर दिया जाता था।
वहां घुमंतू पशुपालक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे, ताकि एक स्थान पर संसाधनों का अत्यधिक दोहन न हो। उनके मार्ग तय थे व उनका किसानों के साथ आपसी सहयोग एवं तालमेल था। पर औपनिवेशिक शासकों को इसकी कोई परवाह नहीं थी। उन्हें तो बस अपने स्वार्थ से मतलब था। नतीजतन अनुचित नीतियों के चलते अफ्रीका की परंपरागत व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न होने लगीं व अकाल तथा भूख का ऐसा दौर आरंभ हुआ, जो आज तक नहीं थमा है।
पश्चिमी देश आज भी खनिजों की लूट पर अधिक ध्यान देते हैं व जिन क्षेत्रों में इनका भरपूर दोहन हो चुका है, उसे उपेक्षित छोड़ देते हैं। बेशक वहां संयुक्त राष्ट्र व उसके खाद्य विकास कार्यक्रम की तरफ से खाद्य वितरण कार्यक्रम चल रहे हैं, पर इनसे अल्पकालीन राहत ही मिल सकती है। अफ्रीका को टिकाऊ व व्यापक विकास कार्यक्रम चाहिए, जिसके लिए जरूरी है कि अफ्रीकी लोगों के हितों के अनुकूल नीतियां बनें और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्याय मिले। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अफ्रीकी निर्यातों को उचित मूल्य मिले। पूरे अफ्रीका महाद्वीप को हाशिये पर रखने की प्रवृत्ति खतरनाक है।
सोर्स: अमर उजाला
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