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डाक्टरों की हड़ताल उलझती जा रही है. उनकी शुरुआती मांग जहां की तहां है, लेकिन हड़ताल से निपटने के लिए पुलिस के बर्ताव ने ज्यादा ही बखेड़ा खड़ा कर दिया
डाक्टरों की हड़ताल उलझती जा रही है. उनकी शुरुआती मांग जहां की तहां है, लेकिन हड़ताल से निपटने के लिए पुलिस के बर्ताव ने ज्यादा ही बखेड़ा खड़ा कर दिया. अभी यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि पुलिस की कार्रवाई में सरकार सीधे तौर पर कितनी भागीदार रही होगी लेकिन इतना तय है कि पुलिस ने हद दर्जे का गैर पेशेवर रवैया दिखाया. भले ही पुलिस के ऐसे रवैए के लिए स्वास्थ्य मंत्री ने पुलिस की तरफ से माफी मांग ली हो, लेकिन लगता नहीं है कि इतने भर से मामला सुलट जाएगा जाएगा.
कहीं आगे न बढ़ जाए मामला
नीट पीजी में दाखिले के लिए जल्द कांउसिलिंग की मांग इतना बड़ा भी मसला नहीं था. और न ही दाखिलों में कोटा इतना बड़ा मामला था जो समय रहते सरकार निपटा नहीं सकती थी. भले ही मामला अदालत तक चला गया लेकिन आजकल अदालतें भी यही चाहती हैं कि जो मसले सरकार के स्तर पर निपटाए जा सकते हैं वे फौरन सुलटा लिए जाने चाहिए. इस लिहाज से बहुत संभव है कि आगे पीछे सरकार को ही अतिरिक्त तत्परता दिखानी पड़ेगी. लेकिन जिस तरह से डाक्टरों पर पुलिस की कार्रवाई हो गई उसे रफा दफा करने में सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है.
दूसरे पेशेवरों का समर्थन मिलने के आसार
मीडिया रिपोर्ट और खासतौर पर सोशल मीडिया में हड़ताली डाक्टरों के समर्थन मिलने की हलचल बढ़ती दिख रही है. वैसे भी जो हड़तालें या आंदोलन लंबे खिंच जाते हैं उन्हें दूसरे असंतुष्ट तबकों का साथ मिल ही जाता है. यानी यह मानना ठीक नहीं होगा कि पीजी में दाखिले के उम्मीदवारों की संख्या कम है और वे हार थक कर चुप हो जाएंगे. वैसे भी न्याय नीति तबकों का आकार नहीं देखा करती.
डाक्टरों और पुलिस के रिश्तों का सवाल
कनून का पालन करवाने वाली एजेंसी के तौर पर पुलिस के सामने हमेशा ही चुनौती रहती है. लोकतांत्रिक राज व्यवस्था में पुलिस से हमेशा ही उम्मीद की जाती है कि वह हड़तालों और आंदोलनों से निपटने में अतिरिक्त सतर्कता बरते. और फिर इस बार तो मामला जूनियर डाक्टरों का था जो अच्छे पढ़ेलिखे और पेशेवर स्नातक होते हैं. ऐसे तबके के साथ पुलिस के आक्रामक रवैए ने कई नए सवाल खड़े कर दिए हैं.
पुलिस प्रशिक्षण पर गौर करने का समय
यह कोई आज की बात नहीं है. हमेशा से ही पुलिस को पेशेवर तौर पर हुनरमंद बनाने की बात उठती रही है. कई दशकों से बात चल रही है कि भीड़ से निपटने या भीड़ प्रबंधन में पुलिस को पटु बनाया जाए. लेकिन जिस तरह दूसरे पेशों में उच्चकोटि के प्रशिक्षण का अभाव दिखाई देता है उससे कहीं ज्यादा पुलिस प्रशिक्षण में यह कमी दिखती है. हड़ताती जूनियर डाक्टरों से निपटने में पुलिस ने जो गैरपेशेवर तरीका अपनाया उसने एक मौका पैदा किया है कि लगे हाथ पुलिस प्रशिक्षण को बेहतर बनाने की बात भी शुरू कर दी जाए.
वैश्विक मीडिया पर गौर जरूरी
किसी भी देश में पुलिस के बेजा रवैए को वैश्विक मीडिया कभी भी नजरअंदाज नहीं करता. जूनियर डाक्टरों के साथ जो हुआ उसे दुनियाभर के अखबार और टीवी दिखा रहे हैं. यानी अपनी पुलिस की छवि सिर्फ अपने देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कैसी बन रही है इसे संजीदगी से देखने की जरूरत है.
छवि सुधार के लिए फौरन काम करने की जरूरत
भले ही पुलिस की तरफ से सरकार ने माफी मांग ली हो, लेकिन इतने भर से काम चल नहीं पाएगा. अगर सरकार वाकई ऐसा ही महसूस करती है तो उसे पुलिस की छवि सुधारने के भी ठोस काम करने होंगे. और अगर वह कुछ करना चाहे तो ब्यूरो आॅफ पुलिस रिसर्च एंड डवलपमैंट को पुलिस की छवि सुधार के शोध के काम पर लगा सकती है. इसके अलावा पुलिस प्रशिक्षण के पाठयक्रम को पूरी तौर पर बदले जाने की जरूरत है. एक अपराधशास्त्री होने के नाते यह लेखक पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में शिक्षित प्रशिक्षित अपराधशास्त्रियों की ज्यादा मदद लेने का सुझाव देना चाहता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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Gulabi
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