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- नीरज का कमाल
एक सौ इकत्तीस करोड़ भारतीयों की उम्मीदें एक भाले की नोक पर टिकी हुई थीं। नीरज चोपड़ा के भाले पर। सोने की तलाश में टोक्यो पहुंचे बजरंग पुनिया कांसे पर टिक गए थे। अदिति अशोक भी गोल्फ में बस मुहाने पर ठिठक गई थीं। हॉकी में महिलाओं के हौसले और पदक से कुछ दूर रह जाने के भावुक क्षणों में बहे आंसू सभी को नम कर चुके थे। 2008 में अभिनव बिंद्रा की बंदूक की नली से निकला सुनहरा पदक पिछले 13 साल से खुद को बहुत अकेला महसूस कर रहा था। उसके ऊपर करोड़ों भारतीयों की उम्मीदों का बोझ बढ़ता जा रहा था। इस भार को साझा करने की बेहतरीन कोशिश मीराबाई चानू ने की पर वो चांदी पर रुक गई। सिंधु की शटल से भी कांसा ही निकल पाया। पहलवान रवि दहिया की सुनहरी उम्मीदें भी चांदी की चमक में बदल गईं। लवलीना के मुक्के से दमका कांसा सुकून भी दे रहा था और भविष्य की उम्मीद भी जगा रहा था। पर सोना तो सोना होता है। और सोने की चिड़िया रहे इस देश से बेहतर इसकी चमक को कौन समझ सकता है! तमाम उपलब्धियों के बीच एक अजीब सी कसमसाहट बाकी थी। एक प्यास, खेलों के उस महाकुंभ में भारत के राष्ट्रगान की धुन सुन लेने की प्यास, एक बेताबी अपने तिरंगे को सबसे ऊपर चढ़ते हुए देखने की। जब दुनिया के हमसे छोटे देश ये कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? ओलंपिक में एक समय हॉकी ने ही सोने के तमगों से माँ भारती का अभिषेक किया है। फिर व्यक्तिगत स्वर्ण पदक अभिनव बिंद्रा लेकर आए। लगा कि ये सिलसिला चल पड़ेगा। पर तेरह साल लग गए हैं अगले स्वर्ण तिलक के लिए।
क्रेडिट बाय हमारा महानगर