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- नीरज चोपड़ा का खेल...
ओलिम्पिक खेलों की भाला फेंक प्रतिस्पर्धा के स्वर्ण पदक विजेता नीरज चोपड़ा की टिप्पणियों को जिस तरह जहरीली साम्प्रदायिकता से भरे हुए लोग तोड़-मरोड़ कर अपना संकीर्ण व घृणित एजेंडा चलाना चाहते हैं उसकी एक सिरे से निन्दा होनी चाहिए और इस प्रकार होनी चाहिए कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति किसी खिलाड़ी का उपयोग सियासत की शैतानी हरकतों में न कर सके। नीरज चोपड़ा ने ओलिम्पिक खेलों में देश को जो गौरव दिलाया है वह इस बात का प्रतीक है कि भारत के गांवों में गरीबी में पलने वाले लोग ही वक्त आने पर भारत का 'भाल' ऊंचा रखते हैं। नीरज चोपड़ा ने आजादी के बाद पहली बार पारंपरिक खेलों में स्वर्ण पदक जीत कर यही सिद्ध किया है कि इन खेलों को हिकारत की नजर से देखने वाले कथित संभ्रान्त लोग केवल क्रिकेट के खेल में ही भारत की खेल प्रतिभाओं को गुमा देना चाहते हैं जबकि भारत के गरीबी में पलने वाले लोग इसकी मिट्टी की खुशबू से खेल जज्बा पैदा करने का माद्दा रखते हैं। नीरज चोपड़ा की यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि उन्होंने भारत की समस्त जनता को चेताया है कि भारत की मिट्टी में खेल कर पल-बढ़ने वाले लोगों का हौसला खेलों में भी नये रास्ते बनाने का है। नीरज की पाकिस्तानी भाला फेंक खिलाड़ी अर्शद नदीम से दोस्ती दो खिलाडि़यों के बीच की दोस्ती है। इस दोस्ती को दो खिलाडि़यों की व्यक्तिगत दोस्ती के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। नदीम अगर नीरज के खेल का प्रशंसक है तो यह खेल भावना का ही प्रतीक है। इसे भारत-पाकिस्तान के बीच के सम्बन्धों के सन्दर्भ में देखते हुए हिन्दू-मुसलमान का सवाल पैदा करना बेमानी और राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध है। दोनों मुल्कों के बीच खेल उस कशीदगी को हल्का करने का काम करते हैं जो अन्य कारणों से बनी रहती है। यही कार्य संगीत भी करता है। यदि नीरज चोपड़ा ने किसी टेलीविजन इंटरव्यू में यह कह दिया कि पाकिस्तानी खिलाड़ी नदीम उनका बहुत अच्छा मित्र है और फाइनल स्पर्धा में वह अपने भाले के साथ उनके चारों ओर घूम रहा था तो उसके अलग अर्थ निकालने के क्या मायने हैं? नदीम इस स्पर्धा में पांचवें नम्बर आया लेकिन कुछ लोगों ने नीरज की इस टिप्पणी को इस तरह पेश करना शुरू कर दिया जैसे किसी रंजिश की वजह से यह सब हुआ हो। ओलिम्पिक खेलों में हर खिलाड़ी अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और सभी देशों के खिलाडि़यों में भाईचारे का भाव भी रहता है । इसी भाईचारे में हर खिलाड़ी अपने से बेहतर खिलाड़ी की प्रशंसा करता है। इसे ही खेल का सम्मान कहते हैं। मगर कुछ लोग इस वाकये को हिन्दू-मुसलमान के रंग में रंग कर पेश करने लगे जबकि हर न्यूज चैनल को दिये गये साक्षात्कार में नीरज चोपड़ा ने बहुत ही स्पष्ट तरीके से कहा कि नदीम उनका अच्छा दोस्त है । वह पाकिस्तानी है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर वह एक अच्छा खिलाड़ी है। खेलों में भी हिन्दू-मुसलमान करना एेसे सिरफिरे लोगों की फितरत हो सकती है जिनका लक्ष्य क्रिकेट की बाल से लेकर भाले तक पर हिन्दू-मुसलमान लिखना हो। याद रखा जाना चाहिए कि खेलों में खिलाड़ी खेलते हैं हिन्दू-मुसलमान नहीं। उनकी राष्ट्रीयता कोई भी हो सकती है मगर सबसे पहले वे खिलाड़ी होते हैं तभी तो अपने-अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। संपादकीय :बच्चों की सुरक्षा और पढ़ाई जरूरीबार-बार सुलगता असमसरकार ने खोला आकाश...अफगानियों के साथ भारतराजनीतिक शुचिता के लिए...अफगान-भारत और रूसदो देशों के बीच में खेलों का कितना महत्व होता है इसका उदाहरण इसी से दिया जा सकता है कि 1947 में पाकिस्तान के भारत से अलग हो जाने के बाद आपसी सम्बन्धों में कशीदगी को दूर करने के लिए सबसे पहले भारत व पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैचों की ही शुरूआत की गई थी क्योंकि यह खेल दोनों देशों में अत्यन्त लोकप्रिय था। उस समय केवल परमिट लेकर ही दोनों देशों के लोग एक-दूसरे के देश में जाकर क्रिकेट मैच देख आते थे। गौर से देखिये तो पता चलेगा कि भारतीय पंजाबी और पाकिस्तानी पंजाबी में क्या अन्तर है? हकीकत यह है कि कोई अन्तर नहीं क्योंकि दोनों की संस्कृति एक है। भारत के उत्तर भारत के राज्यों में मुस्लिम नागरिकों द्वारा हिन्दू नाम रखने पर जो विवाद पैदा किया जाता है उसकी असलियत यह है कि पाकिस्तान के पंजाबी मुसलमान आज भी अपने बच्चों के घरेलू नाम हिन्दू ही रखते हैं। अजहरुद्दीन को 'अज्जू' बना देते हैं और भोला नाम तो इतना लोकप्रिय है कि पाकिस्तानी पंजाब के हर गांव में सबसे सीधा व्यक्ति खुद-ब-खुद भोला कह कर पुकारा जाने लगता है। पाकिस्तान का 90 के दशक का सबसे लोकप्रिय फिल्मी कलाकार 'सुधीर' ही था जो पीढि़यों से मुसलमान था। मगर मध्यप्रदेश में हम एक निरीह चूड़ी बेचने वाले युवा व्यक्ति को सरेआम इसलिए पीट डालते हैं कि उसका घर का नाम 'भूरे' था और अाधिकारिक नाम मुस्लिम था। इसलिए बहुत जरूरी है कि हर बात में हिन्दू-मुसलमान ढूंढने की मानसिकता को हम तिलांजिली दें और सोचें िक नीरज चोपड़ा ने जो कहा है उस पर हर इंसान को अमल क्यों नहीं करना चाहिए। जरा कोई इन सिरफिरों से पूछे कि उत्तर प्रदेश के 'रामपुर मनिहारन' कस्बे के मुसलमान नागरिक पीढि़यों से चूड़ी बनाने और पहनाने का काम क्यों करते आ रहे हैं? भारत की तासीर यही है कि हिन्दू औरतों के सुहाग पिटारे का हर सामान मुसलमान कारीगर ही बनाते हैं। प. उत्तर प्रदेश में तो हिन्दू मन्दिरों में चढ़ने वाले 'बताशे' के प्रसाद तक को मुस्लिम कारीगर ही बनाते हैं। इसीलिए भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सभी हिन्दू-मुस्लिमों को एक परिवार की तरह देखता है। 'हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा' इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एेसा परचम है जिसे कोई नहीं झुका सकता।