सम्पादकीय

पारदर्शिता की जरूरत

Gulabi
22 Oct 2020 3:49 AM GMT
पारदर्शिता की जरूरत
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निर्वाचन आयोग ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में खर्च की सीमा दस फीसद बढ़ा दी है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। निर्वाचन आयोग ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में खर्च की सीमा दस फीसद बढ़ा दी है। यह फैसला कोरोना संकट के चलते किया गया है, क्योंकि माना जा रहा है कि उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार आदि में अधिक खर्च करने की जरूत पड़ेगी। अब विधानसभा के उम्मीदवार अट्ठाईस के बजाय तीस लाख अस्सी हजार रुपए और लोकसभा के उम्मीदवार सत्तर की जगह सतहत्तर लाख रुपए खर्च कर सकेंगे। यों भी बढ़ती महंगाई और चुनाव प्रचार में संसाधनों की आवश्यकता के मद्देनजर समय-समय पर चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाई जाती रहती है। पिछली बार यह सीमा छह साल पहले बढ़ाई गई थी। निर्वाचन आयोग उम्मीदवार के चुनाव प्रचार आदि में आने वाले सभी तरह के खर्चों का आकलन करने के बाद ही खर्च की सीमा तय करता है। अगर कोई उम्मीदवार सही तरीके से चुनाव लड़ना चाहता है, तो उसके लिए यह खर्च सीमा पर्याप्त मानी जा सकती है। मगर बड़े दलों के नेता प्राय: इस नियम का उल्लंघन करते देखे जाते हैं। उनके खिलाफ विपक्षी दल शिकायत भी दर्ज कराते हैं, पर इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग पाती। इसलिए कैसे तय चुनाव खर्च की सीमा का पालन सुनिश्चित हो, इस पर भी विचार जरूरी है।

चुनाव खर्च में पारदर्शिता की जरूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। निर्वाचन आयोग की सख्त निगरानी के बावजूद ज्यादातर उम्मीदवार तय सीमा से ऊपर खर्च करते देखे जाते हैं। दरअसल, अब चुनावों में धनबल का प्रदर्शन खुलेआम होने लगा है। चुनाव खर्च के लिए पार्टियां और उनके उम्मीदवार चंदा जुटाने के लिए व्यापक अभियान चलाते हैं। फिर पार्टियां ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देना ज्यादा बेहतर समझने लगी हैं, जिनके पास चुनावों में खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा हो। इसलिए चुनावों में न सिर्फ पोस्टर, बैनर, बड़े-बड़े कटआउट, संचार माध्यमों में युद्धस्तर पर विज्ञापन आदि देने की होड़ देखी जाती है, बल्कि मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए गुप्त रूप से काफी धन खर्च करने की शिकायतें भी आम हैं। शराब, साड़ी, गहने, नगदी, बर्तन आदि बांटने का चलन-सा हो गया है। चूंकि यह सब गुप्त रूप से किया जाता है, इसलिए निर्वाचन आयोग उन खर्चों को उम्मीदवार के खर्च में नहीं गिन पाता। फिर चुनाव रैलियों में इस्तेमाल होने वाले वाहनों, हेलीकॉप्टर, बड़े-बड़े मंचों आदि पर होने वाले खर्च का बहुत सारा हिस्सा उम्मीदवार पार्टी फंड में दिखा देते हैं। चूंकि चुनाव खर्च उम्मीदवारों के लिए तय है, पार्टियों के लिए नहीं, इसलिए बहुत सारे बड़े खर्चे निर्वाचन आयोग के हिसाब से बाहर ही रहते हैं।

चुनाव खर्च को नियंत्रित करने की जरूरत इसलिए भी महसूस की जाती रही है कि चुनाव काले धन को छिपाने का एक बड़ा जरिया बनते गए हैं। हालांकि चंदे के लेनदेन को लेकर कड़े नियम बनाए गए हैं, चंदे की सीमा भी तय की गई है, पर हकीकत यही है कि अनेक कारोबारी बड़ी पार्टियों को चंदे के नाम पर अपना काला धन ही उपलब्ध कराते हैं। इस तरह बड़े दल तो धनबल के जरिए अपने पक्ष में माहौल बना कर मतदाता को प्रभावित करने में कामयाब हो जाते हैं, पर छोटे दल और स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने वाले बहुत सारे लोग चुनाव खर्च के इस घटाटोप में कहीं नजर ही नहीं आते। इस तरह लोकतंत्र का असल मकसद भी प्रभावित होता है। इसलिए यह जरूरत अब भी बनी हुई है कि निर्वाचन आयोग न सिर्फ चुनाव खर्च की तय सीमा का पालन कराने के उपाय करे, बल्कि इसका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़े कदम भी उठाने का साहस दिखाए।

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