सम्पादकीय

पाकिस्तान के इरादों को समझने की जरूरत, सिद्धू जैसे नेता स्वयं को इस वास्तविकता से परिचित कराएं

Gulabi
24 Nov 2021 6:37 AM GMT
पाकिस्तान के इरादों को समझने की जरूरत, सिद्धू जैसे नेता स्वयं को इस वास्तविकता से परिचित कराएं
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पाकिस्तानी सियासत में 17 नवंबर की तारीख बड़े सियासी घटनाक्रम की गवाह बनी
विवेक काटजू: पाकिस्तानी सियासत में 17 नवंबर की तारीख बड़े सियासी घटनाक्रम की गवाह बनी। इमरान सरकार ने इस दिन संसद के संयुक्त सत्र में ताबड़तोड़ अंदाज में 33 विधेयक पारित कराए। विपक्षी दलों के बहिर्गमन और बेकाबू हालात के बीच यह असाधारण कदम उठाया गया। इसके लिए संयुक्त सत्र का दांव इसलिए चला गया, क्योंकि सरकार सामान्य विधायी प्रक्रिया से इन विधेयकों को पारित कराने को लेकर आश्वस्त नहीं थी। माना जाता है कि इमरान खान को पर्दे के पीछे से सेना का समर्थन मिला, ताकि वह संयुक्त सत्र के पड़ाव को सफलतापूर्वक पार कर सके। संसद के इस संयुक्त सत्र की कार्रवाई से पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की कई झलकियां दिखती हैं। उनका वास्ता पाकिस्तानी सेना और इमरान खान सरकार के बीच संबंधों से लेकर विपक्षी दलों तक से है। इन पहलुओं की पड़ताल इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वे इमरान खान के राजनीतिक भविष्य और पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य रिश्तों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हैं.
हाल में इमरान पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा द्वारा आइएसआइ के महानिदेशक ले.ज. फैज हमीद को उनके पद से हटाकर उनकी नई नियुक्ति के फैसले से असहमत थे। हमीद के स्थान पर बाजवा ने कराची कार्प्स कमांडर ले.ज. नदीम अंजुम को आइएसआइ का नया मुखिया बनाने का फैसला किया। सेना ने 6 अक्टूबर इसकी औपचारिक घोषणा कर दी। पाकिस्तानी सेना से जुड़ी वरिष्ठ नियुक्तियों में वैसे तो सेना प्रमुख का निर्णय ही अंतिम माना जाता है, परंतु आइएसआइ मुखिया के मामले में प्रधानमंत्री की सहमति जरूरी है। अंजुम की नियुक्ति पर इमरान ने शुरुआती हिचक दिखाई। वह चाहते थे कि आइएसआइ की कमान हमीद के हाथ में ही रहे।
दरअसल राजनीतिक प्रबंधन में हमीद इमरान के मददगार रहे। यूं तो किसी देश की खुफिया सेवा के मुखिया को ऐसा नहीं करना चाहिए, मगर पाकिस्तानी राजनीति और सार्वजनिक जीवन में आइएसआइ-सेना की दखलंदाजी चलती रही है। इस मामले में जब इमरान ने हीलाहवाली दिखाई तो पाकिस्तान के राजनीतिक भविष्य पर आशंकाएं बढ़ गईं। खासतौर से यह देखते हुए कि सभी वरिष्ठ जनरल बाजवा के फैसले पर एकजुट हो गए। आखिर इमरान ने अंजुम की नियुक्ति पर सहमति जताई, मगर इसे इतना लटका दिया कि यह फैसला 20 नवंबर को ही अमल में आ पाया।
टकराव को लेकर यह संकट भले ही टल गया हो, लेकिन इसने इमरान और बाजवा के बीच भरोसे को घटा दिया। नि:संदेह 2018 में इमरान की जीत में सेना के समर्थन की बड़ी मेहरबानी रही। उन्होंने बाजवा को कार्यकाल विस्तार देकर उस अहसान का मोल भी चुकाया। फिर अब जब दोनों के बीच भरोसे की दीवार दरक गई है, तब सेना प्रमुख ने आखिर क्यों संयुक्त सत्र में इमरान की नैया पार लगवाई? असल में सेना नहीं चाहती कि जब उसे तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान में बड़ी सफलता मिली है, तब पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो। फिलहाल वह नए चुनाव और सैन्य तख्तापलट के जरिये सत्ता कब्जाने से बचना चाहती है। इसलिए उसने इमरान सरकार में थोड़ी चाबी और भर दी है, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि इससे सरकार की गाड़ी और कितनी दूर तक जाएगी? यह मुश्किल लगता है कि बाजवा इमरान को अगले सेना प्रमुख की नियुक्ति पर फैसला करने देंगे। बाजवा का विस्तारित कार्यकाल अगले वर्ष नवंबर में समाप्त हो रहा है। सेना को उम्मीद है कि अगले छह महीनों में अफगानिस्तान में तालिबान शासन सामान्य हो जाएगा। इससे अफगान मोर्चे पर बेचैनी से उसे मुक्ति मिल जाएगी।
इमरान सरकार की तमाम मुश्किलों के बाद भी पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट के माध्यम से विपक्षी एकता को मजबूत करने के प्रयासों को विपक्षी दलों के रवैये से ही अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। विपक्षी दल इमरान खान के खिलाफ कोई ठोस योजना नहीं बना पाए हैं। साथ ही सेना के साथ संबंधों को लेकर नवाज शरीफ की पार्टी के भीतर ही कुछ दुविधा है। इसीलिए खंडित विपक्ष ने कमजोर इमरान को कुछ राजनीतिक गुंजाइश प्रदान की है। इसके बावजूद तथ्य यह है कि पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंसी हुई है। चूंकि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं तो बड़ी शक्तियां यह नहीं चाहेंगी कि उसकी अर्थव्यवस्था एकदम तबाह हो जाए, क्योंकि उससे उपजी अस्थिरता से कट्टरपंथी ताकतों को मजबूती मिल सकती है। सेना और इमरान को तहरीक-ए-लब्बैक-ए-पाकिस्तान जैसे संगठन के साथ उसकी शर्तो पर समझौता करना पड़ा, जबकि उसके लोगों ने पुलिस वालों की हत्या की थी। तहरीक-ए-तालिबान को कुचलने में नाकाम रहने के बाद सेना और इमरान को उससे संघर्ष-विराम करना पड़ा। लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे जिन आतंकी धड़ों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है, सेना की उन पर भी लगाम लगाने की कोई मंशा नहीं दिखती। आंतकियों के प्रति ऐसे लचर रवैये के कारण ही पाकिस्तान एफएटीएफ की ग्रे सूची में बना हुआ है।
हालांकि चीन के साथ पाकिस्तान के संबंध बढ़िया बने हुए हैं। चीनी निवेश बढ़ाने के मकसद से पाकिस्तान चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के दूसरे चरण की शुरुआत करने जा रहा है। उसे उम्मीद है कि इससे समृद्धि आएगी, लेकिन यह व्यर्थ की उम्मीद है। जब तक पाकिस्तान भारत के प्रति शत्रुता की भावना का परित्याग नहीं करेगा, तब तक उसके लिए आर्थिक सफलता संभव नहीं होगी। इससे उसकी अर्थव्यवस्था भारत के लिए खुलेगी। समस्या यही है कि पाकिस्तान भारत को एक स्थायी शत्रु मानता है। वह द्विपक्षीय संबंधों को लेकर कोई सकारात्मक नीति नहीं अपनाएगा। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिद्धू ने भले ही भारत-पाकिस्तान के बीच खुली सीमा और व्यापार बढ़ाने की वकालत की है और इमरान को अपना 'बड़ा भाई' बताया हो, वह असल में पाकिस्तान के असली चरित्र और भारत के प्रति उसकी गहरी दुश्मनी से अनभिज्ञ हैं। भारत के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार और कश्मीर घाटी में उसका फैलाया आतंक ही पाकिस्तान की असलियत है। ऐसे में सिद्धू जैसे नेताओं के लिए बेहद आवश्यक होगा कि वह स्वयं को इस वास्तविकता से परिचित कराएं।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
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