सम्पादकीय

निर्यात बढ़ाने की जरूरत

Subhi
18 July 2022 5:01 AM GMT
निर्यात बढ़ाने की जरूरत
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वस्तुओं के निर्यात में विश्व स्तर पर भारत की भागीदारी कभी दो फीसद से ज्यादा नहीं रही। जबकि भारत दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है।

विजय प्रकाश श्रीवास्तव; वस्तुओं के निर्यात में विश्व स्तर पर भारत की भागीदारी कभी दो फीसद से ज्यादा नहीं रही। जबकि भारत दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। इसे देखते हुए यह निर्यात हिस्सेदारी नगण्य ही कही जाएगी। अगर वस्तु निर्यात में हम दुनिया में अब तक अपनी धाक नहीं जमा सके हैं तो इसका एक कारण वस्तुओं के उत्पादन में बड़े पैमाने पर पीछे रह जाना है।

किसी भी देश का निर्यात और आयात उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर असर डालते हैं। यदि आयात ज्यादा हो और व्यापार घाटा बढ़ रहा हो, तो देश की मुद्रा विनिमय दर पर प्रतिकूल असर पड़ता है। जब देश की मुद्रा में कमजोरी देखने को मिले तो निर्यात बढ़ाना और आयात करना महंगा होता है। इसके विपरीत देशी मुद्रा जब मजबूत होती है तो इससे निर्यात पर बोझ पड़ता है और आयात के लिए कम कीमत चुकानी होती है। मुद्रास्फीति की दर ऊंची होने पर माल की कीमतों और मजदूरी में वृद्धि के कारण निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

अच्छी स्थिति तब मानी जाती है जब कोई देश आयात की तुलना में निर्यात ज्यादा करे। इससे व्यापार आधिक्य (ट्रेड सरप्लस) देखने को मिलता है, अन्यथा देश को व्यापार घाटे का सामना करना पड़ता है। भारत इस समय इसी समस्या से जूझ रहा है। भले पिछले दिनों हमारा निर्यात बढ़ा हो, पर आयात पर निर्भरता काफी ज्यादा रही है। निर्यात के साथ-साथ भारत में होने वाले आयात में भी रिकार्ड वृद्धि दर्ज़ की गई है। व्यापार घाटा भी अब तक के सभी आंकड़ों को पार कर चुका है। कच्चे तेल और सोने के आयात पर देश को भारी रकम खर्च करनी पड़ती है। घरेलू जरूरतों के कारण आयात को कम करना कई बार संभव नहीं होता और यदि इसमें कटौती की जा सकती है तो केवल सीमित मात्रा में ही। इसलिए यदि देश को अपना व्यापार घाटा कम करना है तो निर्यात बढ़ाने के प्रयास करने होंगे।

बीते दो साल प्राय: सभी देशों के लिए कठिन और अनिश्चितता भरे रहे हैं। अब दुनिया इन मुश्किल हालात से उबर रही है। केंद्र सरकार 31 मार्च 2023 को समाप्त होने वाले वित्त वर्ष के लिए निर्यात का यथार्थपरक लक्ष्य तय करना चाहती है। पर अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने में मुश्किलें हैं क्योंकि वैश्विक विकास दर को लेकर अनुमान उत्साहवर्धक नहीं हैं। विश्व बैंक का मानना है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उत्पन्न आपूर्ति और व्यापार बाधाओं के चलते वैश्विक विकास दर इस साल सिमट कर 2.9 फीसद रहेगी, जो वित्त वर्ष 2020-21 में 5.7 फीसद थी।

चिंताजनक यह है कि इधर भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी घट रहा है। अक्तूबर 2021 में देश के पास 642 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, जो घट कर अब 590 अरब डालर रह गया है। इसमें आगे और कमी आ सकती है क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशक शेयर बाजार में बिकवाली में लगे हैं। किसी देश को विदेशी मुद्रा की जरूरत विभिन्न कारणों से होती है जिनमें से एक आयात भुगतान भी है। विदेश में पढ़ाई के लिए गए लोगों को भी वहां के सारे खर्चों का भुगतान विदेशी मुद्रा में ही करना होता है। ऐसे में निर्यात बढ़ा कर सरकार विदेशी मुद्रा कमा सकती है।

भारत जिन वस्तुओं का निर्यात करता है, उनमें मुख्य रूप से सूती धागा, इंजीनियरिंग सामान, काफी, इलेक्ट्रानिक वस्तुएं, जूट और जूट से बने सामान, चमड़ा और इससे बने उत्पाद, हस्तशिल्प सामान, परिधान, प्लास्टिक आदि शामिल हैं। देश में पैदा या निर्मित होने वाले तमाम उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए अलग-अलग निर्यातक संगठन पहले से स्थापित हैं। उदाहरण के लिए, कृषि व प्रसंस्करित खाद्य उत्पाद निर्यात संवर्धन परिषद, इलेक्ट्रानिक्स व कंप्यूटर साफ्टवेयर निर्यात संवर्धन परिषद आदि।

जब वैश्विक स्तर पर निर्यात की बात होती है तो बांग्लादेश और चीन का जिक्र आना स्वाभाविक है। बांग्लादेश विश्व में एक प्रमुख निर्यातक देश के रूप में उभर रहा है। जहां तक चीन की बात है, तो आज हममें से शायद ही कोई होगा जो चीन में बने उत्पादों का इस्तेमाल न करता हो। जल्दी टूटने या खराब होने वाले उत्पादों को लेकर कई बार चीन का मजाक भी उड़ाया जाता है, पर यदि एपल जैसी कंपनियां जो आमतौर पर गुणवत्ता से समझौता नहीं करतीं, मोबाइल फोन और अन्य सामान चीन में ही बनवा कर दुनिया भर में बेचती हैं तो इसमें कहीं न कहीं कोई अनुकूल पक्ष भी होगा। हालांकि अब कई छोटे देश चीन को चुनौती देने में लगे हैं। वियतनाम, ताइवान, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको और कुछ हद तक मलेशिया भी वैश्विक निर्यात में अपना महत्त्वपूर्ण मुकाम बना चुके हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था की पहचान निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था के रूप में कभी नहीं रही। साल 1991 में देश में उदारीकरण की शुरुआत के समय से ही भारत का आर्थिक विकास निजी और सार्वजनिक कंपनियों के निवेश तथा सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाओं पर किए जाने वाले खर्च से चालित रहा है। वस्तुओं के निर्यात ने इसमें सहायक भूमिका मात्र निभाई है। अब हमारे निर्यात का एक बड़ा हिस्सा सेवाओं का है। सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की मजबूत स्थिति होने के बाद दुनिया के विकसित और अन्य देशों में भी सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी सेवाओं की मांग बढ़ी है। भारत कानून संबंधी सेवाओं का भी निर्यात करता है। इस समय देश के कुल निर्यात में सेवाओं का हिस्सा चालीस फीसद से ज्यादा है। देश में सेवा क्षेत्र के विस्तार की रफ्तार भी अच्छी-खासी है। 2021-22 में सेवाओं का निर्यात 254 अरब डालर का रहा, जो 2020-21 के 206 अरब डालर रहा था, यानी तेईस फीसद का इजाफा।

वस्तुओं के निर्यात में विश्व स्तर पर भारत की भागीदारी दो फीसद से कभी ज्यादा नहीं रही। जबकि भारत दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है, इसे देखते हुए यह निर्यात हिस्सेदारी नगण्य ही कही जाएगी। यदि वस्तु निर्यात में हम दुनिया में अब तक अपनी धाक नहीं जमा सके हैं तो इसका एक कारण वस्तुओं के बड़े पैमाने पर उत्पादन में पीछे रह जाना है। अन्य कारणों में सरकार की नीतियों में जल्दी-जल्दी बदलाव हैं जिसके कारण निवेशकों को अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है।

कर की दरों में अस्थिरता, नियमों में जब-तब फेरबदल और नीतियों को पलट देने जैसे भी कारण इसमें शामिल हैं। कारोबार करने में आसानी को लेकर दावे जरूर किए जा रहे हैं, पर जमीनी स्तर पर स्थिति उतनी नहीं बदली है जितनी कि बदल जानी चाहिए थी। निर्यात बढ़ाने के लिए हमें अलग-अलग क्षेत्रों पर ध्यान देते हुए उनके लिए बाजार के मद्देनजर विशिष्ट रणनीति निर्मित करनी होगी। औषधियों, आभूषणों और रसायनों के निर्यात के लिए दुनिया का बाजार सामने है। एक अनुमान के अनुसार हम प्रति वर्ष अट्ठावन अरब डालर मूल्य के हीरों तथा आभूषणों का निर्यात कर सकते हैं, जबकि वास्तविक निर्यात सिर्फ तीस अरब डालर का ही हो रहा है। भारत ने 2030 तक एक लाख करोड़ रुपए की वस्तुओं के निर्यात का लक्ष्य रखा है।

वर्ष 2019-20 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि भारत निर्माण क्षेत्र में चीजों को जोड़ने के कार्य के बल पर विश्व निर्यात बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा कर छह फीसद तक पहुंचा सकता है और इससे करीब आठ करोड़ नए रोजगार पैदा हो सकते हैं। निर्यातोन्मुखी इकाइयों की स्थापना के लिए सरकार ने नीतियां तथा प्रोत्साहन व्यवस्था पहले से बना रखी है। अब आवश्यकता ऐसी नई इकाइयों की स्थापना उन इलाकों में करने की है जो अपेक्षाकृत पिछड़े हैं। स्वाभाविक है कि इसके लिए इन स्थानों पर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी। इसके लिए निवेश चाहिए होगा। पर इस तरह के निवेश का प्रतिफल दीर्घकालिक होगा। सबसे बड़ा फायदा आस-पास के लोगों को रोजगार मिलने में दिखेगा। निजी व सरकारी दोनों स्तरों पर रोजगार सृजन हेतु निर्यात वृद्धि की मदद लेने की रणनीति बनाने की ज़रूरत है।


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