सम्पादकीय

संविधान की प्रस्तावना में देश के नाम के संदर्भ में सुधार करने की आवश्यकता

Gulabi
15 Nov 2021 2:08 PM GMT
संविधान की प्रस्तावना में देश के नाम के संदर्भ में सुधार करने की आवश्यकता
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संदर्भ में सुधार करने की आवश्यकता

ब्रज बिहारी। मुगल आक्रांताओं और अंग्रेज आततायियों के नाम पर दिल्ली और देश के अन्य शहरों की सड़कों और भवनों के नामकरण के खिलाफ अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अभियान का हृदय से स्वागत किया जाना चाहिए। परिषद की यह मांग सर्वर्था उचित है कि इन सड़कों और भवनों को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के लिए बलिदान होने वाले कारसेवकों और ऋषि-मुनियों, सिख धर्मगुरुओं व बौद्धों को आराध्यों सहित क्रांतिकारियों के नाम से याद रखा जाना चाहिए। कहना न होगा कि मुगल और अंग्रेज इस देश को लूटने आए थे, इसलिए उनके नाम का महिमामंडन कतई नहीं होना चाहिए।

दरअसल अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी अयोध्या के कारसेवकों का ब्योरा एकत्र करवा रहे हैं। ब्योरा जुटाए जाने के बाद उसे एक प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, प्रदेशों के राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों को भिजवाया जाएगा। पूरी उम्मीद है कि उनके इस प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा और देश की सड़कों का नामकरण उनके नाम पर हो पाएगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस देश के संत जो संकल्प ले लेते हैं उसे पूरा किए बिना नहीं मानते हैं। अयोध्या में प्रभु श्रीराम का निर्माणाधीन भव्य मंदिर इसका सबसे सटीक उदाहरण है। यह संतों के प्रताप का ही फल है कि करोड़ों भक्तों की आस्था का मंदिर साकार होने जा रहा है।
छल-कपट से सत्ता हासिल कर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने वाले मुगल और अंग्रेजों के नाम से सड़कों और भवनों को मुक्त कराना जितना जरूरी है, उतना ही आवश्यक यह है कि संविधान की प्रस्तावना से 'इंडिया दैट इज भारत' के स्थान पर 'भारत दैट इज इंडिया' होना चाहिए। इस काम को भी अखाड़ा परिषद जैसे संतों के संगठन को अपने हाथ में लेना चाहिए। चूंकि राजनीतिक दलों के लिए संविधान की प्रस्तावना कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि उससे उन्हें वोट की फसल काटने में मदद नहीं मिलेगी। इसलिए इस संकल्प को गैर राजनीतिक मंच या संगठन के जरिये ही निष्कर्ष तक पहुंचाया जा सकता है।
इस देश ने 1947 में जब अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त की तब इस उपमहाद्वीपीय भौगोलिक ईकाई के लिए भारत, इंडिया, हिंद और हिंदुस्तान जैसे नाम प्रचलित थे, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि इनमें से सबसे प्राचीन नाम भारत ही है। पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। ग्रीक और लैटिन बोलने वाले देशों के लोग जब हमारे देश के संपर्क में आए और इसके बारे में लिखा तो उन्होंने इसके लिए इंडिक और इंडिया शब्दों का प्रयोग किया। ईसा से तीन सदी पूर्व पर्सिया (वर्तमान ईरान) के लोगों ने इस भूभाग को हिंदुस्तान कहना शुरू किया। उनके लिए सिंध नदी के पार का संपूर्ण भूभाग हिंदुस्तान था। दरअसल, पर्सियन में 'स' को 'ह' की तरह उच्चारित किया जाता है। इसलिए सिंध का हिंद हो गया और वही हिंदुस्तान हो गया।
मंदिरों में पुराणों के सतत अध्ययन-अध्यापन का परिणाम था कि भारत नाम सदियों से प्रचलित रहा, लेकिन पहले मुगल आंक्राताओं ने इसे हिंदुस्तान फिर अंग्रेजों ने इंडिया बना दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा में अंग्रेजीदां सदस्यों का बोलबाला होने के कारण उन्हें इंडिया शब्द अधिक आकर्षक लगा और उन्होंने प्रस्तावना के प्रारंभ में 'इंडिया दैट इज भारत' लिख दिया।
हालांकि संविधान सभा में भी कुछ सदस्यों ने देश का नाम इंडिया रखे जाने का विरोध किया, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दब गई। संविधान सभा के सदस्य एचवी कामथ ने कहा था कि संविधान सभा को देश के नाम को गंभीरता से लेना चाहिए। उनका विचार था कि मुख्य नाम भारत ही होना चाहिए। संविधान सभा के एक और सदस्य सेठ गोविंद दास ने वेद, पुराण, महाभारत का हवाला देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि इस देश को हमेशा से भारत के नाम से ही जाना जाता रहा है। उन्होंने 'इंडिया दैट इज भारत' के स्थान पर 'भारत नोन एज इंडिया इन फारेन कंट्रीज' का प्रयोग करने की सलाह भी दी थी। दस्तावेज बताते हैं कि इस मुद्दे पर कमलापति त्रिपाठी और डा. भीमराव आंबेडकर के बीच नोंकझोंक भी हुई थी। आखिरकार, एचवी कामथ के प्रस्ताव पर वोटिंग हुई। उनके समर्थन में 38 सदस्य थे, जबकि 51 ने उसका विरोध किया। परिणास्वरूप उनका प्रस्ताव पास नहीं हो पाया और 'इंडिया दैट इज भारत' को ही स्वीकार कर लिया गया।

संविधान लागू होने के बाद भी इस मुद्दे को उठाने के छिटपुट प्रयास होते रहे, लेकिन कभी भी ये परवान नहीं चढ़ पाए। मूल प्रश्न यह है कि किसी भी देश का एक नाम होना चाहिए। जैसे जापान, चीन, अमेरिका आदि। जब सभी देशों के एक नाम हैं तो हमारे देश का दो नाम क्यों होना चाहिए। पिछली पीढ़ियों ने इस पर सवाल नहीं उठाया, लेकिन आज की पीढ़ी खुद को इस भ्रम से मुक्त करना चाहती है।

पिछले साल जून में सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दायर एक याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन कहा कि याची चाहें तो भारत सरकार से इसकी मांग कर सकते हैं। अब वह समय आ गया है। भारत और भारतीयता के गौरव की रक्षा करने वाली सरकार केंद्र में है। इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा।


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