सम्पादकीय

नए समाज को गढ़ने की जरूरत: ऐसे कदम उठाने होंगे कि लोग गहन संकट के समय आपसी मदद के लिए खड़े हो सकें

Triveni
26 Jun 2021 5:14 AM GMT
नए समाज को गढ़ने की जरूरत: ऐसे कदम उठाने होंगे कि लोग गहन संकट के समय आपसी मदद के लिए खड़े हो सकें
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कोविड महामारी ने केंद्र और राज्य सरकारों के इंतजामों की पोल तो खोली ही,

भूपेंद्र सिंह | कोविड महामारी ने केंद्र और राज्य सरकारों के इंतजामों की पोल तो खोली ही, सामाजिक नैतिकता पर भी सवाल खड़े किए। इन सवालों के जवाब तलाशने जरूरी हैं, क्योंकि किसी देश, समाज की परीक्षा संकट के समय ही होती है। ऐसी अव्यवस्था से शायद ही कोई देश गुजरा हो। याद कीजिए मार्च 2020 में लॉकडाउन की घोषणा होते ही अगले कुछ दिनों के हादसे। एक वर्ष बाद इस महामारी की दूसरी लहर ने तो और भी कहर बरपाया। अस्पतालों में बेड, जीवन रक्षक दवाएं, आक्सीजन, आइसीयू, वेंटिलेटर की चौतरफा कमी महसूस की गई। राजधानी दिल्ली में तो शायद सबसे भयानक दृश्य थे।

लोगों ने अस्पतालों के बाहर और अंदर मेडिकल सुविधाओं की कमी से जान गंवाई
अस्पतालों के बाहर और अंदर लोगों ने मेडिकल सुविधाओं की कमी से जान गंवाई। इतना ही नहीं, श्मशान में भी जगह नहीं मिली तो आसपास चिताएं जलानी पड़ीं। त्रासदी केवल सरकारी व्यवस्था तक ही सीमित नहीं थी। समाज का आईना और भी डरावना और दुखद था। कालाबाजारी करने वाले आक्सीजन सिलेंडर 10-20 गुना कीमत पर उपलब्ध करा रहे थे तो कुछ दानवों ने अग्निशमन यंत्रों पर आक्सीजन लिखकर तड़पते मरीज के संबंधियों को बेच दिए। यह सब सरेआम हुआ। सच तो यह है कि अभी भी हो रहा है। मुंबई और कोलकाता में टीकाकरण के फर्जी केंद्र लगाने का मामला सामने आया है तो दिल्ली में ब्लैक फंगस के नकली इंजेक्शन बनाने का। ये इंजेक्शन दो डाक्टर ही बना और बेच रहे थे। हरिद्वार कुंभ में फर्जी कोरोना टेस्टिंग का मामला भी हैरान करने वाला है। एक भुक्तभोगी ने बताया कि ठीक होने के बाद वे कुछ बची दवाओं को मुफ्त में नजदीक के अस्पताल देने गए तो उन्हें बताया गया कि ये सब नकली हैं। आखिर मरीज को कैसे पता चले कि असली और नकली दवा में क्या अंतर होता है?
कोरोना से मौत के बाद प्रमाण पत्र लेना मुश्किल साबित हुआ
यह जो हर स्तर पर ठगी और उगाही हुई और अभी भी होने के समाचार आ रहे हैं, उसका एक जरूरी सबक यह है कि अगर शासन-प्रशासन का तंत्र भरभराकर गिरता है तो उसके मलबे में अमीर-गरीब सभी समान रूप से आते हैं, लेकिन दुखों का अंत यहीं तक नहीं है। मौत के बाद प्रमाण पत्र लेना भी वैसा ही मुश्किल साबित हुआ, जैसा श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग दरबारी' में लंगड़ को अपनी जमीन के कागज लेने के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं।
मौत के बाद सर्टिफिकेट हार्ट अटैक, सांस की बीमारी का दिया गया
अस्पतालों में मुश्किल से जगह इस आधार पर मिली कि रोगी कोरोना पाजिटिव है, लेकिन मौत के बाद उसे सर्टिफिकेट हार्ट अटैक, सांस की बीमारी का दिया गया। निश्चित रूप से फ्रंट पर लड़ रहे हर स्तर के चिकित्सा कर्मियों ने जान की बाजी लगा दी, लेकिन व्यवस्था की चूक भी कम नहीं रही। नेताओं, समाजसेवियों के पास आक्सीजन सिलेंडर, दवाओं के स्टाक थे, अस्पतालों में नहीं। यह भी देखें कि दिल्ली के स्कूलों में हजारों टन अनाज बिना बांटे ही सड़ गया। क्या रग-रग में सड़ांध पैदा हो चुकी है? केवल डाक्टरों, अस्पतालों पर अंगुली उठाने से काम नहीं चलेगा। आखिर उन्हें क्या कहें, जिनके अंतिम संस्कार के लिए उनका कोई नजदीकी भी सामने नहीं आया। ऐसे लोगों के कफन, कपड़े अगले दिन बाजार में बिकते नजर आए। ऐसे किस्से तो हजारों हैं, जब पीपीई किट, मास्क नष्ट करने के बजाय फिर से इस्तेमाल किए जा रहे थे।
सामाजिक गिरावट की दास्तान बहुत ही दुखी करने वाली
सामाजिक गिरावट की दास्तान बहुत ही दुखी करने वाली है। कोरोना बीमारी का नाम सुनते ही न केवल पड़ोसियों ने दरवाजे बंद कर लिए, बल्कि अपने सगी-संबंधियों ने भी दुत्कार दिया। ग्रेटर नोएडा में डाक्टर ने मरीज के संबंधी को मास्क लगाने को कहा तो उसने गोली चला दी। दिल्ली में एक युवा जोड़े को पुलिस वाले ने मास्क पहनने के लिए समझाना चाहा तो महिला इस दंभ में डूबी मिली कि उसने यूपीएससी की मुख्य परीक्षा पास कर कर ली है और अब उसका कोई कुछ नहीं कर सकता। क्या समाज अफसर बनने से पहले ही लोगों को इतना निरंकुश, घमंडी और असामाजिक बना देता है? इसके भी कई उदाहरण नजर आए। त्रिपुरा के डीएम साहब ने पूर्व स्वीकृत एक शादी समारोह में जाकर विवाहित जोड़े समेत सभी रिश्तेदारों पर डंडे बरसाए, फिर भी दिल्ली में बैठे कुछ प्रगतिशील जातिवादियों ने जाति को सामने रखकर उनके कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिश की। छत्तीसगढ़ में भी ऐसे ही आइपीएस अफसर ने सरेआम किशोर की पिटाई कर दी, जो अपने पिता के लिए दवा लेने जा रहा था। ऐसे अफसरों के खिलाफ तो कार्रवाई हो गई, लेकिन अनैतिकता का परिचय देने वाले आम लोगों पर कार्रवाई कौन करेगा?
नैतिक शिक्षा आपदा के वक्त कहां गायब हो जाती
आखिर समाज के हर स्तर पर ऐसा मनुष्य कैसे बनाया जा रहा है? धर्म-तीर्थ, मंदिर-मस्जिद की नैतिक शिक्षा ऐसी आपदा के वक्त कहां गायब हो जाती है? यह समाज में भयंकर बीमारी का संकेत है। भविष्य की शिक्षा में इस सबको शामिल करके एक नए समाज को गढ़ने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ। उत्तराखंड में आई आपदा के समय ऐसे वीडियो सामने आए थे, जब मृत महिलाओं की अंगुलियां काटकर गहने निकाले गए। बिहार में कोसी की बाढ़ के समय दस रुपये का बिस्कुट सौ-दो सौ रुपये में बेचा जा रहा था और नदी पार कराने के लिए पांच हजार रुपये वसूल किए जा रहे थे। निश्चित रूप से ऐसे भले लोग भी देश के हर कोने में सामने आए, जिन्होंने सब कुछ दांव पर लगाकर लोगों की जान बचाने की कोशिश की। दुनिया भर के देशों ने भी अपनी हैसियत भर मदद उपलब्ध कराई, लेकिन समाज की अनैतिकता के घाव इतने गहरे हैं कि उन्हें भूलना आसान नहीं। हम सबको ऐसे कदम उठाने होंगे कि लोग गहन संकट में आपसी मदद के लिए खड़े हो सकें। संकट के समय केवल सत्ता या शासकों की तरफ देखने से काम नहीं चलने वाला। समाज की भी अपनी जिम्मेदारी होती है। यह जरूरी है कि समाज भी अपने गिरेबान में झांके।


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