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बालश्रम मसले पर सवाल और समाधान के बीच असंतुलन की गहरी होती खाई को पाटने की जरूरत है
डॉ. रमेश ठाकुर। बालश्रम मसले पर सवाल और समाधान के बीच असंतुलन की गहरी होती खाई को पाटने की जरूरत है। लगातार बढ़ती बाल श्रमिकों की संख्या वैसे ही चिंता का विषय बनी हुई थी। कोरोना संकट ने इसे और भयावह बना दिया है। कोरोनाकाल में अनाथ हुए बच्चों का आंकड़ा भयभीत करता है। करीब तीन लाख बच्चे अपने मां-बाप के न रहने से अनाथ हुए हैं।
गनीमत ये है कि केंद्र व राज्य सरकारों ने इन अनाथ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और 21 वर्ष आयु पूरे होने तक समुचित देखरेख का जिम्मा उठा लिया है। कोई भी बच्चा दर-दर न भटके, मेहनत मजदूरी व बालश्रम से बचे, इसके लिए सरकारों ने जिलाधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपी है। निश्चित रूप से अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो बाल श्रमिकों की संख्या में और बढ़ोतरी हो सकती थी।
बच्चों से मजदूरी करवाना कुछ परिवारों की मजबूरी हो सकती है, पर उस दलदल से निकालने की जिम्मेदारी समाज की भी है। इसके लिए हमें अपने भीतर जिद पैदा करनी होगी। ऐसी जिद जो बाल उत्पीड़न और बाल समस्याओं के खिलाफ बिगुल बजाए। जब तक समाज मुखर नहीं होगा, बात नहीं बनेगी। सिर्फ सरकार-सिस्टम पर सवाल उठाने से काम नहीं चलेगा? समाधान के रास्ते सामूहिक रूप से खोजने होंगे। सड़कों पर भीख मांगते बच्चे, कारखानों में काम करते नौनिहाल, विभिन्न अपराधों में लिप्त व शिक्षा से महरूम बच्चों को देखकर हमें उनके लिए सिस्टम को ललकारना होगा। उन्हें देखकर मुंह फेरना ही हमारा सबसे बड़ा अपराध है। हमारी चुप्पी ही बालश्रम जैसे कृत्य को बढ़ावा देती है।
ऐसे बच्चों के बचपन की तुलना थोड़ी देर के लिए हमें अपने बच्चों से करनी चाहिए, फर्क अपने आप महसूस होगा। ऐसा करने से हमारे भीतर बेगाने बच्चों की प्रति संवेदना जगेगी और उनसे जुड़े जल्मों के खिलाफ अवाज उठाने की हिम्मत जगेगी। बाल श्रम रोकना केवल सरकारों की ही जिम्मेदारी नहीं है, हमारा भी मानवीय दायित्व है। पर यह समस्या किसी एक के बूते नहीं सुलझ सकती, इसके लिए सामाजिक चेतना, जनजागरण और जागरूकता की आवश्यकता होगी। बंधुआ बाल मजदूरी और बाल तस्करी किसी भी संपन्न या विकसित देश के माथे पर बदनुमा दाग है।
बाल मजदूरी व बाल तस्करी दोनों कृत्यों में एक बड़ा गैंग सक्रिय होकर अंजाम देता है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि तस्कर गिरोह समूचे हिंदुस्तान में रोजाना सैकड़ों बच्चों का अपहरण करते हैं जिन्हें बाद में भीख मंगवाने, मजूदरी, बाल अपराध और बाल श्रम की आग में झोंकते हैं। सड़क, बाजार व अन्य जगहों पर की जाने वाली स्नैचिंग की ज्यादातर घटनाओं को कम उम्र के बच्चे ही अंजाम देते हैं। उन्हें बाकायदा इसका प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कल-कारखानों में इन्हें केवल इसलिए रखा जाता है, क्योंकि मजदूरी के नाम पर इन्हें अपेक्षाकृत बहुत ही कम भुगतान करना पड़ता है या कई बार तो भोजन और कपड़ा आदि देकर ही काम चलाया जाता है
बाल श्रम रोकने में सरकारी व सामाजिक दोनों प्रकार के प्रयास नाकाफी न रहें, इसलिए सभी को ईमानदारी से इस दायित्व में आहूति देनी चाहिए। इस संबंध में कानूनों की कमी नहीं है, कई कानून सक्रिय हैं। बाल श्रम अधिनियम 1986 के तहत ढाबों, घरों, होटलों में बाल श्रम करवाना दंडनीय अपराध है। बावजूद इसके लोग बाल श्रम को बढ़ावा देते हैं। बच्चों को वह अपने प्रतिष्ठानों में इसलिए काम दे देते हैं, क्योंकि उन्हें कम मजदूरी देनी पड़ती है। लेकिन वह यह भूल बैठते हैं कि वह कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में 21.8 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जबकि अकेले भारत में इनकी संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है। इस समस्या का समाधान केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं, आम जनता की भी इसमें सहभागिता जरूरी है। आर्थिक रूप से सक्षम प्रत्येक व्यक्ति यदि ऐसे एक बच्चे की भी जिम्मेदारी लेने लगे तो इस दिशा में काफी बदलाव आ सकता है।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान के सदस्य हैं)
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