सम्पादकीय

विश्व शांति की दरकार : नस्ली राष्ट्रवाद विनाश की ओर ले जाएगा, जहां से पीछे मुड़ना मुमकिन नहीं

Neha Dani
9 March 2022 1:48 AM GMT
विश्व शांति की दरकार : नस्ली राष्ट्रवाद विनाश की ओर ले जाएगा, जहां से पीछे मुड़ना मुमकिन नहीं
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दलगत राजनीति से परे इस पर गंभीर विचार करने की आवश्यकता है।

यूक्रेन पर रूस के दुर्दांत आक्रमण में निहित भयावह खतरों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए लगभग सौ साल पीछे चलना होगा। 1918 में जर्मनी की पराजय के साथ पहले विश्वयुद्ध के खात्मे ने यूरोप का सीन बदल डाला। विजेता पक्ष का निष्कर्ष था कि जर्मन सैन्यवादी-विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं पर कारगर रोक न लगाई गई, तो विश्व शांति फिर भंग होगी। 'अंशलोस' अर्थात जर्मन भाषी ऑस्ट्रिया के जर्मनी में विलय की संशोधनवादी जर्मन राष्ट्रवाद की अभिलाषा अब भी खतरनाक मानी जा रही थी।

इसलिए 1919 की वर्साई संधि ने जर्मनी पर कई कठोर शर्तें लगाने के साथ ही 'अंशलोस' को प्रतिबंधित कर दिया। ठीक उन्नीस साल बाद हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी ने ऑस्ट्रिया पर फौजी कब्जा कर लिया। उसी साल हिटलर ने प्रचार शुरू कर दिया कि चेकोस्लोवाकिया के पूर्वी हिस्से, सुडेटनलैंड में जर्मन भाषियों का उत्पीड़न किया जा रहा है। नाजी सेना सुडेटनलैंड में घुस गई। जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के बीच हुई म्यूनिख संधि ने जर्मन सैन्यवाद की आग में घी का काम किया।
कुछ महीने बाद हिटलर चेकोस्लोवाकिया को गटक गया। दूसरे विश्व युद्ध के रास्ते पर अनपलट यात्रा निश्चित हो गई। हिटलर के पैटर्न की पुनरावृत्ति देखिए। रूस ने आरोप लगाया कि जार्जिया में रूसी भाषियों का दमन किया जा रहा है। 2008 में 'रूसी अल्पसंख्यकों को बचाने' के लिए रूस ने जार्जिया के उत्तरी सूबों, अब्खाजिया और दक्षिणी ओसेशिया पर अधिकार कर लिया। 2014 में यूक्रेन के स्वायत्त जनतंत्र, क्रीमिया पर रूसी सेना का आधिपत्य हो गया। यहां भी बहाना वही-रूसी भाषी जनता के हितों को रौंदा जा रहा है।
पिछले महीने यूक्रेन पर हमला करते समय, तो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अंतरराष्ट्रीय संधियों, कानूनों, परंपराओं और मर्यादाओं का नृशंस हनन कर डाला। उन्होंने स्वतंत्र, संप्रभु यूक्रेनी राष्ट्र के वजूद को नकारते हुए यह मंशा जता दी कि वह वृहत स्लाव रूसी राष्ट्र के अधीन ही रह पाएगा। यह गति उस यूक्रेन की होने जा रही है, जो सोवियत संघ का हिस्सा होते हुए भी 1945 से 1991 तक संयुक्त राष्ट्र का सदस्य था और 1991 में सोवियत विघटन के बाद से अब तक इस विश्व संगठन का सदस्य है।
जिंदगी का बड़ा हिस्सा खुफिया एजेंसी, केजीबी में गुजारने के कारण पुतिन को इतिहास पढ़ने और उससे सीख लेने का मौका शायद नहीं मिला। अक्तूबर सोवियत क्रांति के नायक लेनिन को कोसते हुए वह कहते हैं कि यूक्रेन का कबाड़ा उनकी वजह से हुआ। उनकी समझ में यही नहीं आ रहा कि लेनिन समाजवादी क्रांति के नायक थे, विस्तारवादी स्लाव राष्ट्र के उन्नायक नहीं। लेनिन और उनके सहयोगियों के नेतृत्व में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी सर्वानुमति पर आधारित समाजवादी राज्य चलाना चाहती थी।
इसी विचार से प्रेरित सोवियत संविधान ने 15 घटक जनतंत्रों को अलग हो जाने का अधिकार दिया था। ऐतिहासिक त्रासदी है कि खुद मुख्तारी का सपना कागजों पर ही रह गया। 15 जनतंत्रों को मिलने वाली आजादी हंगरी और चेकोस्लोवाकिया तक को नहीं नसीब हो पाई। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश उसके लिए अच्छे-खासे दोषी हैं।
भारत के राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से देखें, तो पुतिन ने दो विध्वंसकारी नजीरें पेश की हैं। एक, अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का पुनर्निर्धारण। दो, संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र का उल्लंघन करते हुए, नस्ली आधार पर अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देशों में सैनिक हस्तक्षेप। अंतरराष्ट्रीय राजनीति और भू-राजनीति में असंभव कुछ नहीं होता, इसलिए एक सिनेरियो की कल्पना करते हैं।
चीन का तर्क है
तिब्बत उसका है और तवांग तिब्बत का हिस्सा था। अरुणाचल प्रदेश की जनता और तिब्बत की जनता बौद्ध धर्म की एक ही शाखा की अनुयायी हैं। इस आधार पर वह विराट सैन्य शक्ति के साथ अरुणाचल को हथियाने के लिए हमला कर देता है। या, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार के साथ चीन की सैनिक संधि हो जाती है। चीन के उकसावे पर पाकिस्तान मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी को कब्जाने की एक और कोशिश करता है।
नेपाल निश्चित सीमाओं की उपेक्षा करते हुए मांग करता है कि सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग और अन्य इलाके भारत लौटा दे। या म्यांमार ईस्ट इंडिया कंपनी और बर्मा के बीच 1826 की यांदाबू संधि पर पुनर्विचार और सीमाओं के पुनर्निर्धारण की मांग करने लगता है। हान नस्लवादी-विस्तारवादी-प्रभुत्ववादी चीन नाकाबिल एतबार है। यह बात दीगर है कि भारत अपनी भौगोलिक अखंडता के लिए किसी भी हद तक चला जाएगा।
चिंता का विषय यह भी है कि अमेरिका के यूरोप में फंस जाने से चीन के लिए अप्रत्याशित अनुकूल और भारत के लिए कुछ प्रतिकूल स्थिति पैदा हो गई है। अमेरिकी विशेषज्ञ चीन के इस आकलन से मोटे तौर पर सहमत हैं कि 2030 तक चीन का सकल राष्ट्रीय उत्पाद अमेरिका से आगे निकल जाएगा। चीन का प्रारंभिक लक्ष्य 2049 में कम्युनिस्ट पार्टी के शासन की शताब्दी तक विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली ताकत बन जाने का था। अमेरिका उससे पहले पीछे छूट चुका होगा? इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में है।
यहां एक सवाल वाजिब है
1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के समय ब्रिटेन ने क्या कल्पना भी की होगी कि महज तीन दशक में वह थका-मांदा मुल्क होगा और जिस बर्तानिया की हुकूमत में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, उसका अवसान हो जाएगा। मार्च, 2021 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन की संसद में दूरगामी महत्व के भाषण में कहा था, 'मातृभूमि के संपूर्ण पुनः एकीकरण का ऐतिहासिक कार्य अवश्य किया जाना चाहिए और हर हालत में होगा।' भ्रम नहीं होना चाहिए कि 'पुनः एकीकरण' सिर्फ ताइवान तक सीमित रहेगा।
आठ महीने बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में नए लक्ष्य निर्धारित किए जाएंगे। शीत युद्ध के दौरान माओत्से तुंग ने कहा था, 'जब दो बाघ लड़ रहे होते हैं, बुद्धिमान बंदर पहाड़ पर बैठकर देखता है।' यूक्रेन संकट चीन के लिए वही एक अवसर है। दो बाघों और एक बुद्धिमान बंदर के बरक्स भारत कहां है, और कहां होना चाहिए, दलगत राजनीति से परे इस पर गंभीर विचार करने की आवश्यकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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