सम्पादकीय

मोदी सरकार को लेकर पक्ष-विपक्ष में आए सेवानिवृत्त अधिकारियों से वाद-विवाद के बजाय संवाद की जरूरत

Gulabi Jagat
5 May 2022 11:51 AM GMT
मोदी सरकार को लेकर पक्ष-विपक्ष में आए सेवानिवृत्त अधिकारियों से वाद-विवाद के बजाय संवाद की जरूरत
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ओपिनियन
विवेक काटजू। प्राचीन काल से ही भारत की बौद्धिक परंपरा में संवाद पर विशेष जोर दिया गया है। सत्य अन्वेषण की इस प्रक्रिया ने हठधर्मिता को कभी स्वीकार नहीं किया। यहां तर्क एवं प्रश्नों को प्राथमिकता मिली, जिन्होंने निष्कर्षों पर पहुंचने में मार्गदर्शन दिया। इस मार्ग में तल्ख शब्दों, निजी हमलों के लिए कोई जगह नहीं थी। इतना ही नहीं, संदिग्ध मंशा वाले विरोधियों पर भी पलटकर हमले की परिपाटी नहीं रही। दुखद है कि यह महान परंपरा अब करीब-करीब विलुप्त हो गई है। इसके लिए हमारी राजनीतिक बिरादरी जिम्मेदार है, जो अब शायद ही कोई सार्थक विमर्श करती है। इसके बजाय वह राजनीतिक विरोधियों को कड़ाई से आड़े हाथों लेती है। उनकी देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद पर प्रश्न खड़े करती है। इससे भी दुखद स्थिति यह है कि अब कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाह, न्यायाधीश और सैन्य अधिकारियों ने भी संवाद की राह को त्याग दिया है। वे अब समूह बना रहे हैं। फिर सामूहिक रूप से किसी दल का समर्थन करते हैं और किसी का विरोध।
कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप (सीसीजी) नाम से सेवानिवृत्त अधिकारियों का ऐसा ही एक समूह पिछले कुछ वर्षों से अस्तित्व में है। यह समूह पूरी तरह से मोदी सरकार और उसकी विचारधारा का विरोधी है। दूसरी ओर कनसन्र्ड सिटिजंस ग्र्रुप है। दोनों में से कोई भी सत्यापन योग्य तथ्यों पर शांतिपूर्वक चर्चा के लिए तत्पर नहीं। दोनों ही पक्ष आक्रोश एवं भावनाओं से आवेशित हैं। ऐसा करके ये समूह न केवल प्राचीन भारतीय बौद्धिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतिकार कर रहे हैं, बल्कि उनका यह आचरण उन मूल्यों के विरुद्ध भी है, जिनकी अपेक्षा लोक सेवक, राजनयिक, न्यायाधीश और सैन्य अधिकारी के रूप में उनसे की गई। इन पेशों से जुड़े लोगों को हमेशा मर्यादा और गरिमा के दायरे में रहना चाहिए, जो उनकी भाषा में भी व्यक्त होना चाहिए। उनके सेवाकाल में यह आवश्यक था, जो सेवानिवृत्ति के बाद भी जारी रहना चाहिए था।
सीसीजी ने मोदी सरकार की उन नीतियों के खिलाफ कई पत्र लिखे हैं, जो उसकी नजर में खराब रहीं। इसी कड़ी में उसने 26 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम एक खुला पत्र लिखा है। इस पत्र में सीसीजी ने भाजपा शासित राज्यों पर अल्पसंख्यक विरोध विशेषकर मुस्लिम विरोधी नीतियां अपनाने का आरोप लगाया है। इससे भी बढ़कर यह आरोप है कि ये सरकारें संवैधानिक सिद्धांतों को दरकिनार कर बहुसंख्यक केंद्रित एजेंडा चला रही हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि इन राज्यों का प्रशासनिक अमला अल्पसंख्यकों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण नीतियों के माध्यम से उन्हें निरंतर डराने में लगा हुआ है। कुछ राज्यों में बीते दिनों घटित दुखद एवं दुर्भाग्यपूर्ण सांप्रदायिक हिंसक घटनाओं के पीछे सीसीजी ने राजनीतिक नेतृत्व की मंशा पर भी एक प्रकार से संदेह व्यक्त किया है। यदि ऐसा है तो क्या सीसीजी को इस प्रकार की कोई अटकलबाजी करनी चाहिए? हालांकि, यह अनुमान लगाकर उसने यही व्यक्त किया कि केंद्र और राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं के अनुकूल परिवेश तैयार कर रही हैं। सीसीजी ने माना है कि अतीत में भी सांप्रदायिक टकराव हुए हैं, लेकिन उसका आरोप है कि अब देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का एक 'विशेष सांचा' तैयार किया जा रहा है।
इस प्रकार भारत की सबसे महान सभ्यतागत विरासत के प्रतीक सामाजिक तानेबाने को बिगाड़ा जा रहा है। यह सब लिखकर सीसीजी ने मोदी से आह्वान किया कि वह नफरत की राजनीति के खिलाफ कुछ बोलें। इसके जवाब में कनसर्न्‍ड सिटिजंस ग्रुप ने सीसीजी के सदस्यों पर ऐसा एजेंडा चलाने का आरोप लगाया है, जो केवल भारत विरोधी लाबी की मदद करेगा। उसका कहना है कि यह पत्र मोदी-विरोध का ही एक और प्रयास है। इस समूह ने यह भी आरोप लगाया कि सीसीजी का रुख भी बहुत सुविधावादी है और उसने गैर-भाजपा शासित राज्यों में राजनीतिक हिंसा को अनदेखा किया है। कनसर्न्‍ड सिटिजंस ग्रुप ने सीसीजी से कहा कि वह अपने पूर्वाग्रह त्यागकर भ्रामक प्रचार के बजाय किसी कारगर समाधान की दिशा में मंथन करे।
यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि कनसर्न्‍ड सिटिजंस ग्रुप ने सीसीजी सदस्यों के खिलाफ निजी हमले भी किए। इससे बचा जाना चाहिए था, क्योंकि यह संवाद की गुंजाइश को कमजोर करता है। उसने सुझाव दिया है कि राष्ट्र अपने सेवानिवृत्त लोक सेवकों से जो अपेक्षा करता है, उन्हें उसकी पूर्ति करनी चाहिए। अपने सेवाकाल में इन लोगों से निष्पक्ष बने रहकर संवैधानिक दायरे में अपने कर्तव्य पूर्ति की अपेक्षा की जाती है। सेवानिवृत्ति के उपरांत ऐसे लोगों को अपने राजनीतिक एवं वैचारिक विचारों की अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है, परंतु राष्ट्र की उनसे यही अपेक्षा हो सकती है कि वे रचनात्मक एवं सकारात्मक रवैये के साथ राष्ट्रीय हितों को भी ध्यान में रखें। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार पर सादगी और गंभीरता से अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। उनका ऐसा रवैया आरोप-प्रत्यारोप से कहीं अधिक श्रेयस्कर होगा।
जब देश वैचारिक एवं राजनीतिक टकराव से जूझ रहा हो तब ऐसी रणनीति और आवश्यक हो जाती है। यह ऐसा समय है जब राष्ट्र बाहरी चुनौतियों से भी जूझ रहा है। स्वाभाविक है कि ऐसे समय में सामाजिक सौहार्द एवं शांति अपरिहार्य है। ऐसे में आवश्यक है कि सांप्रदायिक दंगों एवं टकराव के कारणों की गहन पड़ताल की जाए और उनके दोषियों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए, भले ही उनका जुड़ाव किसी भी पार्टी या पक्ष से हो। इसके साथ यह भी उतना ही आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों सहित देश में सभी सामाजिक समूह आश्वस्त हों कि उनके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हितों का पूरी तरह से संरक्षण किया जाएगा। सभी सेवानिवृत्त लोक सेवकों, राजनयिकों, न्यायाधीशों और सैन्य अधिकारियों को इसी अभियान के लिए स्वयं को समर्पित करना चाहिए। उन्हें मिलकर इसी के लिए आवाज बुलंद करनी चाहिए। यह केवल संवाद से ही संभव हो सकता है।
वास्तव में हम एक दौर में हैं जहां हमें संविधान को ध्यान में रखते हुए किसी मध्यमार्ग की तलाश करनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सेवानिवृत्त अधिकारियों के ये दोनों समूह अविश्वास और कलह के कारणों की पड़ताल और उनके निवारण हेतु कोई रचनात्मक सुझाव या समाधान तलाशने के लिए साथ आएं। यह एक बड़ी राष्ट्रीय सेवा होगी। आखिरकार दोनों समूह में वही सदस्य तो हैं, जिन्होंने पूरी निष्ठा से देश की सेवा की और ऐसा करते हुए लोगों का सम्मान एवं विश्वास भी अर्जित किया।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
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