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- आजादी का अमृत महोत्सव
देश भर में आज़ादी की लड़ाई के इतिहास को जानने के लिए अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। जो देश और धर्म की रक्षा के लिए लड़ता है, सबसे पहले उसे मृत्यु के भय से मुक्त होना पड़ता है। मृत्यु का भय ही व्यक्ति को कायर बनाता है। कायर व्यक्ति ग़ुलामी में भी जीवन काट लेता है, लेकिन मृत्यु के भय के कारण ग़ुलाम बनाने वाली सत्ता से भिड़ नहीं सकता। आश्चर्य इस बात का है कि सभी जानते हैं कि इस संसार में बाक़ी सब अनिश्चित है, केवल मृत्यु ही निश्चित है। यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य भी कहा जा सकता है। इसका संकेत महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी मिलता है। मध्यकाल में दशगुरू परम्परा के दशम गुरू श्री गोविन्द सिंह जी ने मृत्यु के इसी भय को निकालने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसने मुगल-अफगानों से देश और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए तत्पर मरजीवडे़ तैयार किए थे, जिसे इतिहास में खालसा का सृजन कहा जाता है। यह प्रयोग अमृतपान के माध्यम से हुआ था। मुझे लगता है इस पृष्ठभूमि में आयोजन का नाम आज़ादी का अमृत महोत्सव अत्यंत सार्थक ही है। लेकिन इस संदर्भ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर दिए बिना आप इस देहरी को नहीं लांघ सकते। वह प्रश्न है कि स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव कब से शुरू होता है, यानी हमारी आज़ादी की यह लड़ाई कब से शुरू होती है? यदि हम उन हमलावरों को छोड़ भी दें, जिन्होंने हिन्दुस्तान पर हमला किया, उसे लूटा और वापस अपने देश चले गए, तब भी हमारी आज़ादी की यह लड़ाई लगभग सन् एक हज़ार से चली आ रही है। वैसे भारत के सप्त सिंधु क्षेत्र में तो यह लड़ाई 712 से ही शुरू हो गई थी, जब अरब मोहम्मद बिन क़ासिम ने सिंध क्षेत्र को जीत लिया था।