सम्पादकीय

आजादी का अमृत महोत्सव

Rani Sahu
31 March 2022 6:58 PM GMT
आजादी का अमृत महोत्सव
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देश भर में आज़ादी की लड़ाई के इतिहास को जानने के लिए अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है

देश भर में आज़ादी की लड़ाई के इतिहास को जानने के लिए अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। जो देश और धर्म की रक्षा के लिए लड़ता है, सबसे पहले उसे मृत्यु के भय से मुक्त होना पड़ता है। मृत्यु का भय ही व्यक्ति को कायर बनाता है। कायर व्यक्ति ग़ुलामी में भी जीवन काट लेता है, लेकिन मृत्यु के भय के कारण ग़ुलाम बनाने वाली सत्ता से भिड़ नहीं सकता। आश्चर्य इस बात का है कि सभी जानते हैं कि इस संसार में बाक़ी सब अनिश्चित है, केवल मृत्यु ही निश्चित है। यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य भी कहा जा सकता है। इसका संकेत महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी मिलता है। मध्यकाल में दशगुरू परम्परा के दशम गुरू श्री गोविन्द सिंह जी ने मृत्यु के इसी भय को निकालने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसने मुगल-अफगानों से देश और धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए तत्पर मरजीवडे़ तैयार किए थे, जिसे इतिहास में खालसा का सृजन कहा जाता है। यह प्रयोग अमृतपान के माध्यम से हुआ था। मुझे लगता है इस पृष्ठभूमि में आयोजन का नाम आज़ादी का अमृत महोत्सव अत्यंत सार्थक ही है। लेकिन इस संदर्भ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर दिए बिना आप इस देहरी को नहीं लांघ सकते। वह प्रश्न है कि स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव कब से शुरू होता है, यानी हमारी आज़ादी की यह लड़ाई कब से शुरू होती है? यदि हम उन हमलावरों को छोड़ भी दें, जिन्होंने हिन्दुस्तान पर हमला किया, उसे लूटा और वापस अपने देश चले गए, तब भी हमारी आज़ादी की यह लड़ाई लगभग सन् एक हज़ार से चली आ रही है। वैसे भारत के सप्त सिंधु क्षेत्र में तो यह लड़ाई 712 से ही शुरू हो गई थी, जब अरब मोहम्मद बिन क़ासिम ने सिंध क्षेत्र को जीत लिया था।

महमूद गजनवी भी शेष भारत से तो लूट-खसूट करके वापस आ गया था, लेकिन सप्त सिंधु क्षेत्र के अधिकांश हिस्से पर तो उसने कब्जा कर ही लिया था। लेकिन फिर भी हम आज़ादी की यह लड़ाई, जिसका अंत अमृत महोत्सव से हुआ, सन् एक हज़ार के आसपास शुरू हो ही गई थी, जब दिल्ली में पहले सल्तनत काल शुरू हुआ और 1500 के पहले दशकों में लोधी वंश की पराजय से मुगल साम्राज्य की स्थापना हो गई। इस कालखंड में अरब सैयदों, मध्य एशिया के तुर्कों और मुगल मंगोलों ने भारत के बड़े हिस्से पर राज किया। 1757 के आसपास भारत पर यूरोप की जातियों ने पांव पसारने शुरू कर दिए और 1857 तक उनका भारत के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा हो गया था। लेकिन बड़ा भू-भाग अंग्रेज़ों के कब्जे में था। कुछ भाग पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों के कब्जे में भी थे। 1857 में भारतीयों ने मिलजुल कर इन यूरोपीय विदेशी आक्रान्ताओं से देश को आज़ाद करवाने के लिए युद्ध छेड़ दिया जिसे इतिहास में आज़ादी की पहली लड़ाई कहा जाता है। इस लड़ाई में भारत की पराजय हुई और ब्रिटिश सरकार ने भारत का साम्राज्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से छीन कर सीधा अपने अधीन कर लिया। लेकिन इस लड़ाई से सबक़ लेकर ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों और गोरे हुक्मरानों के बीच पुल या मध्यस्थ की भूमिका अदा करने के लिए भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। अंग्रेज़ 1857 की लड़ाई के अनुभव से समझ गए थे कि बंदूक़ों से लड़ाई कभी भविष्य में अंग्रेज़ साम्राज्य के लिए ख़तरा पैदा कर सकती है। लेकिन वह यह भी जानते थे कि कोई भी ग़ुलाम देश आखिर आज़ादी के लिए संघर्ष तो करेगा ही। उनकी रणनीति बस इतनी थी कि भारतीय भविष्य में अपनी आज़ादी की लड़ाई रणभूमि में बंदूक़ से न लड़ें, बल्कि मेज़ के इर्द-गिर्द बैठ कर ब्रिटिश सरकार के साथ बातचीत से लड़ें। कांग्रेस की स्थापना इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर एक अंग्रेज़ ने की। इस लड़ाई को इतिहास में 'कांस्टीच्यूशनल फाइट फार फ्रीडम' कहा जाता है।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अंग्रेज़ी साम्राज्य से लड़ने वाले सभी लोगों ने कांग्रेस द्वारा अपनाए गए इस 'कांस्टीच्यूशनल मैथ्ड़ फार फ्रीडम स्ट्रगल' को स्वीकार कर लिया हो। ऐसे लोग भी थे जो मानते थे कि आज़ादी की लड़ाई का यह रास्ता तो अंग्रेज़ों ने ही तैयार किया है, इसलिए यह अंततः ब्रिटिश हितों की ही रक्षा करेगा, भारतीय हितों को नुक़सान ही पहुंचाएगा। उनका यह भी मानना था कि यूरोपीय शक्तियों ने भारत में घुसने से लेकर उस पर कब्जा करने तक पशुबल का ही उपयोग किया है, इसलिए उनको भारत से बंदूक के बल पर ही भगाया जा सकता है। यह समूह क्रांतिकारी दल कहलाता था। एक तीसरा समूह ऐसा भी था जिसका मानना था कि भारत बार-बार विदेशी आक्रमणकारियों से पराजित क्यों होता रहता है? भारत में धनबल, शक्तिबल और ज्ञानबल सभी कुछ है, लेकिन फिर भी वह सैयदों, तुर्कों और मुगल मंगोलों से पराजित क्यों होता रहा है? इस समूह का मानना था कि पराजय के कारणों का पता लगा कर उन्हें दूर करने के प्रयास करने चाहिए ताकि भारत संगठित हो सके, जिससे न केवल अभी देश पर कब्जा करके बैठी गोरी शक्तियों को बाहर निकाल जाए, बल्कि आगे से भी कोई भारत पर हमला करने का साहस न कर सके।
इसमें डा. केशव राम बलिराम हैडगेवार का नाम आता है जिन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। दूसरा नाम डा. भीमराव रामजी अंबेडकर का आता है जिन्होंने भारतीय समाज के भीतर की दरारों को सकारात्मक तरीके से भरने की कोशिश की। चौथा तरीका सुभाष चंद्र बोस का था, जो कांग्रेस के कार्य करने के तरीके से असंतुष्ट थे। उन्होंने विश्व में ब्रिटेन की विरोधी शक्तियों से तालमेल बिठा कर भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने के लिए ब्रिटेन सरकार द्वारा गठित की गई भारतीय सेना में कार्य कर रहे भारतीयों से तारतम्य बिठा कर सेना में ही अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ विद्रोह की भावना पैदा कर दी थी। आज़ाद हिंद फौज के नाम से स्वतंत्र भारत की अपनी सेना गठित की। देश का कुछ हिस्सा अंग्रेज़ी शासन से मुक्त भी करवा लिया और देश के पहले प्रधानमंत्री की शपथ भी ली। यानी कुल मिला कर देश में आज़ादी की लड़ाई में चार धाराएं सक्रिय थीं। 1947 में अंग्रेज़ तो यहां से चले गए, लेकिन पुर्तगालियों व फ्रांसीसियों से मुल्क के हिस्से आज़ाद करवाने में और भी समय लगा। दुर्भाग्य से देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद देसी सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में से कांग्रेस को छोड़कर अन्य तीन धाराओं के योगदान और उनकी तकनीक की चर्चा करना ही बंद कर दिया। इतना ही नहीं, सल्तनत काल और मुगल काल को विदेशी शासन न मान कर देशी शासन ही मानना शुरू कर दिया। आज जब देश भर में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है तो इतिहास का पुनर्मूल्यांकन करना अनिवार्य है।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेलः [email protected]


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