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एक दिन पहले हम ‘इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे’ मना रहे थे और उसके एक हफ्ते पहले ही नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का वर्ष 2020 का डेटा इन बच्चियों की जिंदगी से जुड़ी एक डरावनी हकीकत को बयां कर रहा था
मनीषा पांडेय एक दिन पहले हम 'इंटरनेशनल गर्ल चाइल्ड डे' मना रहे थे और उसके एक हफ्ते पहले ही नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का वर्ष 2020 का डेटा इन बच्चियों की जिंदगी से जुड़ी एक डरावनी हकीकत को बयां कर रहा था. ये अंतर्विरोध यहीं मुमकिन है कि बेटी बचाने और बेटी के साथ हिंसा की घटनाएं समानांतर होती रहें और किसी के कान पर जूं भी न रेंगे.
एनसीआरबी) का वर्ष 2020 का आंकड़ा बाल यौन हिंसा से जुड़े एक डरावने सच की ओर इशारा कर रहा है. इस डेटा के मुताबिक साल 2020 में पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेन्स्ट सेक्सुअल ऑफेंस) के तहत जितने केस दर्ज हुए, उनमें से 90 फीसदी मामलों में यौन हिंसा का शिकार होने वाली कोई नाबालिग लड़की थी. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2020 में बाल यौन शोषण के कुल 28,327 केस दर्ज हुए, जिनमें से 28,058 केस ऐसे थे, जिनमें यौन हिंसा का शिकार होने वाली लड़की थी और सिर्फ 269 मामले ऐसे थे, जिसमें यौन हिंसा का शिकार होने वाला कोई लड़का था.
इन आंकड़ों की तह में जाएं तो और भी भयावह हकीकत से सामना होता है. एनसीआरबी के मुताबिक यौन हिंसा और शोषण की घटनाएं सबसे ज्यादा 16 से 18 आयु वर्ष की लड़कियों के साथ हुईं. कुल 14,092 केस ऐसे थे, जिनमें यौन दुर्घटना का शिकार होने वाली लड़की की उम्र 16 से 18 वर्ष थी. दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा इस तरह की घटनाएं 12 से 16 आयु वर्ष की लड़कियों के साथ हुईं, जिनकी संख्या
10,949 है.
इन आंकड़ों को देखते हुए ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी तो नहीं है कि छोटे लड़कों के साथ यौन हिंसा नहीं होती या लड़कियों के मुकाबले कम होती है, लेकिन ये निष्कर्ष तो निकलता ही है कि हमारी बच्चियां इस समाज में बिलकुल सुरक्षित नहीं हैं. एक समाज के रूप में हम अपने बेटियों को सुरक्षित रख सकने में असफल तो हुए ही हैं, जिन एजेंसियों और संस्थानों के कंधों पर इस सुरक्षा को सुनिश्चित करने का जिम्मा है, वो भी पूरी तरह असफल रहे हैं.
ज्यादा पुरानी बात नहीं. इसी साल जनवरी में मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में पॉक्सो के तहत दर्ज हुआ एक केस काफी चर्चा में रहा था. 24 जनवरी को, जिस दिन नेशनल गर्ल चाइल्ड डे था, उसी दिन नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने पॉस्को के एक केस का फैसला सुनाते हुए कहा, "लड़की के ब्रेस्ट को जबरन छूना भर यौन उत्पीड़न नहीं है. अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और 'स्किन टू स्किन टच' नहीं हुआ है तो यह पॉक्सो कानून के सेक्शन 7 के तहत यौन उत्पीड़न और सेक्शन 8 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है."
लड़की की उम्र 12 साल थी और जिस आदमी ने उसे अपने घर में बुलाकर उसका यौन उत्पीड़न करने का प्रयास किया, वो 39 साल का था. वो आदमी बच्ची को अमरूद देने के बहाने अपने घर में ले गया. बच्ची के ब्रेस्ट दबाए और उसकी शलवार उतारने की कोशिश की. जब बच्ची ने चिल्लाने की कोशिश की तो आदमी ने उसका मुंह बंद कर दिया. फिर बच्ची को कमरे में बंद करके बाहर से दरवाजे पर ताला लगाकर चला गया. बच्ची के रोने-चीखने की आवाज सुनकर मां वहां पहुंची और बच्ची को बचाया.
2016 के इस केस में निचली अदालत ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (शील भंग के इरादे से महिला पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग), 363 (अपहरण के लिए सजा) और 342 (गलत तरीके से बंदी बनाकर रखने की सजा) के तहत एक साल के कारावास की सजा सुनाई. साथ ही पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस, 2012) के सेक्शन 8 के तहत तीन साल के कारावास की सजा सुनाई. जब यह केस हाईकोर्ट पहुंचा तो जज पुष्पा गनेडीवाला ने निचली अदालत के फैसले को उलटते हुए तीन साल की सजा माफ कर दी और उस आदमी को बाइज्जत बरी कर दिया और कहा कि कपड़ों के ऊपर से बच्ची की छातियां दबोचना अपराध नहीं है क्योंकि स्किन टू स्किन टच तो हुआ ही नहीं है.
हालांकि यह केस देश भर में काफी सुर्खियों में रहा और भारत के अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में पेश किया और कहा कि यह 'बेहद विचित्र फैसला' है और यह 'एक खतरनाक मिसाल' पेश करेगा. सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर बेंच के इस फैसले पर रोक लगा दी.
लेकिन पॉक्सो का यह पहला और आखिरी केस नहीं है, जिसमें इतना अजीबोगरीब फैसला सुनाया गया. इसी साल 15 जनवरी 2021 को नागपुर बेंच ने एक और केस में ऐसा ही आपत्तिजनक फैसला सुनाया जो लंबे समय में पॉक्सो के अन्य मामलों में खतरनाक नजीर हो सकता है. इस बार भी जज वही थीं- पुष्पा गनेडीवाला. उन्होंने चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज के एक दूसरे केस में कहा कि एक नाबालिग बच्ची (बच्ची की उम्र इस केस में पांच साल थी) का हाथ पकड़ना और अपने पैंट की जिप खोलना पॉक्सो के तहत यौन हमला नहीं है, बल्कि भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ए के तहत सेक्सुअल हैरेसमेंट है. 'लिबनस बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र,' केस में एक 50 साल के पुरुष पर एक 5 साल की बच्ची का यौन शोषण करने का आरोप था.
निचली अदालत ने इसे गंभीर अपराध माना और आरोपी को पॉक्सो एक्ट की धारा 10 के तहत पांच साल कारावास और 25,000 रु. जुर्माने की सजा सुनाई, लेकिन पुष्पा गनेडीवाला ने उस फैसले को उलट दिया. उन्होंने कहा, "बच्ची का सिर्फ हाथ पकड़ना और अपने पैंट की जिप खोलना पॉक्सो के तहत आपराधिक यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता." अपने फैसले में उन्होंने यह भी कहा, "यह भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ए के तहत सेक्सुअल हैरेसमेंट का मामला जरूर है, जिसके लिए अधिकतम तीन साल की सजा हो सकती है. चूंकि अभियुक्त पहले ही पांच महीने जेल में बिता चुका है. इसलिए उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए इतनी सजा काफी है."
बच्चों के साथ किसी भी प्रकार की यौन हिंसा यहां तक कि सिर्फ उनके यौन अंगों को छूना भी गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए गंभीर से गंभीर सजा का प्रावधान होना चाहिए. यही मकसद और इरादा था बाल यौन हिंसा को लेकर अलग से पॉक्सो कानून बनाने के पीछे. पिछले दिनों एक अन्य मामले में बॉम्बे कोर्ट ने पॉक्सो की गंभीरता को एक बार नए सिरे से परिभाषित करते हुए कहा कि "किसी नाबालिग बच्चे के पृष्ठभाग (नितंब) को छूना भी पॉक्सो के तहत अपराध है" और ऐसा करने वाले व्यक्ति को कोर्ट ने पांच साल कैद
की सजा सुनाई.
इस केस में बच्ची की उम्र 10 साल थी और जिसने बच्ची के नितंबों पर हाथ मारा था, वो 21 साल का था. बचाव पक्ष के वकील ने पॉक्सो कानून के सेक्शन 7 की वैसी ही कुतर्की व्याख्या करने की कोशिश की थी, जैसे नागपुर कोर्ट की जज कर रही थीं. उसने कहा कि नितंब तो यौन अंग नहीं है, इसलिए उसे छूना अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा. लेकिन जज ने उस वकील को कसकर फटकार लगाई और कहा, "पॉक्सो की परिभाषा के तहत पृष्ठभाग प्राइवेट पार्ट की श्रेणी में ही आता है." साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा, "नाबालिग के नितंब भाग को छूना अपने आप में ही हमलावर के यौन इरादों को स्पष्ट करता है. इस तरह के कृत्य की कोई और संभव वजह नहीं हो सकती."
यहां इन तमाम मुकदमों की तफसील पेश करने के पीछे मकसद सिर्फ ये बताना है कि एनसीआरबी का काम तो सिर्फ साल-दर- साल आंकड़े इकट्ठा करना है और उन्हें सिलसिलेवार छाप देना है, लेकिन जो एजेंसियां और संस्थाएं इस दायित्व के साथ बनाईं गईं हैं कि वो बाल यौन अपराध को होने से रोकेंगी और ऐसे में मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करेंगी, वो भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह नाकाम रही हैं
लड़कियों की पूजा करने का दावा करने वाले समाज में छोटी-छोटी बच्चियां भी असुरक्षित हैं. 28,058 तो वो केस हैं, जो दर्ज हो गए. इससे ज्यादा बड़ी संख्या तो ऐसे मामलों की होगी, जो न्यायालय के दरवाजे तक पहुंचे ही नहीं. ऐसे असंख्य बच्चे, जिन्होंने कभी अपने घर पर जाकर माता-पिता को नहीं बताया होगा कि किसी ने उन्हें गलत तरीके से छुआ. ऐसे माता-पिता जिन्होंने जानकर भी कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की जहमत और हिम्मत दोनों ही नहीं जुटाई होगी. मुमकिन है, ऐसे मामलों की संख्या दर्ज हुए मामलों से कहीं ज्यादा हो.
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