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महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुई ताजा नक्सली मुठभेड़ से एक बार फिर यह सवाल गाढ़ा हुआ है कि तमाम प्रयासों के बावजूद आखिर सरकारें इस समस्या से पार पाने में क्यों विफल साबित होती हैं।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुई ताजा नक्सली मुठभेड़ से एक बार फिर यह सवाल गाढ़ा हुआ है कि तमाम प्रयासों के बावजूद आखिर सरकारें इस समस्या से पार पाने में क्यों विफल साबित होती हैं। गनीमत है कि इस हमले में सुरक्षाबलों को कोई नुकसान नहीं हुआ। तेरह नक्सली मारे गए। इसे वहां की पुलिस अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है। दो साल पहले उसी इलाके में नक्सलियों ने पंद्रह पुलिसकर्मियों को घात लगा कर मार डाला था।
यह मुठभेड़ ऐसे समय में हुई जब राज्य के गृहमंत्री उस इलाके के दौरे पर थे। नक्सली ऐसे अवसरों की तलाश करते रहते हैं, जब सुरक्षाबलों पर हमला करके वे सरकारों को चुनौती दे सकें। पिछले ही महीने छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने सुरक्षाबलों पर हमला करके भारी नुकसान पहुंचाया था। तब भी उनकी रणनीतियों से पार पाने के उपायों पर जोर दिया गया था। जब भी ऐसे नक्सली हमले होते हैं, तो सरकारें अपनी कमजोरियों को दुरुस्त करने और नक्सलियों के मंसूबे तोड़ने के व्यावहारिक तरीके अपनाने का संकल्प करती हैं, पर वे विफल ही देखी जाती हैं। सुकमा की घटना के बाद शहीद सुरक्षाबलों को श्रद्धांजलि अर्पित करने केंद्रीय गृहमंत्री भी गए थे। तब भी उम्मीद की गई थी कि इस समस्या से पार पाने के लिए किसी नई रणनीति पर विचार होगा।
नक्सली समस्या पर काबू पाने के मकसद से पहले दोनों पक्षों के बीच वार्ताओं के कई दौर भी चले थे, मगर उसमें कोई नतीजा नहीं निकला। फिर सरकारों ने उन्हें हथियार के बल पर रोकने की रणनीति बनाई। अब कई सालों से बातचीत की कोई पहल भी नहीं होती। अनेक अंचलों में नक्सलियों के सफाए के लिए व्यापक अभियान चलाए गए, दावे किए गए कि अब उनकी कमर टूट चुकी है और वे फिर से सिर नहीं उठा सकेंगे, मगर वे दावे सच साबित नहीं हुए। नक्सली मुख्य रूप से देश के आदिवासी बहुल इलाकों में सक्रिय हैं और वे स्थानीय लोगों को इस तर्क पर अपने समर्थन में जोड़ लेते हैं कि सरकारें उनके जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करना चाहती हैं। इस तरह उनका नैसर्गिक जीवन प्रभावित होगा। यह बात पूरी तरह गलत भी नहीं है।
कई जगह सरकारें खनिज और कल-कारखानों के लिए आदिवासी इलाकों की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने का प्रयास भी करती देखी गई हैं। इससे उनमें स्वाभाविक रूप से असंतोष पनपा है। हालांकि आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने, उनके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के लिए योजनाएं चलाने और उनमें पनपी नाराजगी को दूर करने के भी प्रयास हुए हैं, मगर उन पर नक्सलियों का प्रभाव ही गहरा नजर आता है।
दरअसल, नक्सलियों की ताकत जंगलों के भीतर और पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोग ही हैं, जिनसे उन्हें सहयोग मिलता है। सरकारें जब तक स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल नहीं करतीं, तब तक नक्सलियों की ताकत कम कर पाना संभव नहीं है। इसके लिए अनेक बार प्रयास हुए, पर सफलता नहीं मिली तो उसमें कहीं न कहीं सरकारी रणनीति की कमजोरी है। जब तक अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से नक्सली साजिशों का पता लगाने और उनके संसाधनों को खत्म करने का तंत्र मजबूत नहीं होता, तब तक नक्सलियों पर काबू पाना मुश्किल ही रहेगा। नक्सली भी अब जंगलों में कई तरह के धंधे चलाने लगे हैं, उन्होंने जगह-जगह अपना साम्राज्य बना लिया है। उस साम्राज्य को तोड़ने के लिए स्थानीय लोगों का समर्थन जरूरी है। जब तक सरकारें इस दिशा में नए ढंग से रणनीति नहीं बनातीं, नक्सलियों के मंसूबे शायद ही कमजोर हों।
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