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देश में तिसरी लहर की आहट सुनाई दे रही है
देशभर में वैक्सीनेशन की रफ्तार काफी तेज हो गई है। सत्तर करोड़ टीके लग चुके हैं। हालांकि मुंबई में कोरोना की तीसरी लहर की आहट सुनाई दे रही है। हो सकता है मुंबई में थोड़ा बहुत प्रभाव हो, लेकिन बाकी देश में इसकी आशंका काफी कम ही है। लेकिन सावधानी जरूरी है। इसलिए कि खुद की सुरक्षा खुद ही करनी है। इसलिए नहीं कि मास्क, डिस्टेंस वगैरह कानूनी रूप से जरूरी है। क्योंकि कानून की मोहर से रिश्ते रुकते या कटते नहीं हैं। क्योंकि रिश्ते राशन कार्ड नहीं हैं।
इस बीच, मुंबई की मेयर ने गणेशोत्सव को लेकर 'मेरा घर, मेरा बप्पा' नीति की घोषणा कर दी है। यानी घर में ही गणेश पूजो। लेकिन कौन मानने वाला है! कौन सुनने वाला है! जैसे-तन्हाई के नीचे कार्बन पेपर रखकर कितना ही ऊंचा- ऊंचा बोलो, कागज पर शब्द भले ही उतर आएं, पर आवाज की शक्ल को कोई कार्बन पेपर नहीं उतारता। वैसे ही कोई चेतावनी, किसी को सुनाई नहीं देती। दूसरी लहर देखने के बावजूद। अपने करीबियों को खो देने के बाद भी। आखिर हम क्या चाहते हैं? हर जगह भीड़। यहां-वहां जमघट, लोगों का रेला! क्यों?
धरती, हरे-भरे पेड़-पौधे, ऐसे या इस तरह के संकटों में जरूर मनुष्य की कुछ हद तक मदद करते रहे हैं, लेकिन हमने उन्हें भी कहीं का नहीं छोड़ा। सब कुछ काट-काट कर तहस-नहीं कर दिया। जमीन पर लेटो तो मिट्टी के नीचे कुछ सुगबुगाहट सुनाई देती है। लगता है कुछ आवाजें रेंग रही हैं।
कान लगाओ तो धरती के नीचे कुछ नदियों के छिप जाने की चाप मालूम होती है। लगता तो ऐसा है कि अब जमीन भी पौधों को ऊपर आने से रोक रही होगी! कहती होगी… कि ऊपर मत जाना! लोग जमी के कपड़े-लत्ते और जेेवर नोंच-नोंच कर बेच रहे हैं। लूट मची है। लूट-खसोट का दौर चल रहा है। कोई बात नहीं। हम अब भी चेत सकते हैं। जमीन को, नदियों को, पेड़-पौधों को बचा सकते हैं। आखिर एक बुरे ख्याल को दफनाने में कौन सा ईंट-गारा लगता है?
दफ़नाने से याद आया-अफगानिस्तान में तमाम अच्छाइयों, नेक नीयत और सद्कर्मों को जबरन दफना दिया गया है। सरेआम आतंकवादियों की सरकार बन गई है। तमाम अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों को ताक पर रखकर पाकिस्तान वहां की सरकार बनवाने में महती भूमिका निभा रहा है। मदद कर रहा है और यह सब करते हुए अपनी पीठ पर चीन के संदेशों का झोला भी टांगे हुए है.
कोई देश आगे आकर यह कहने की जरूरत नहीं समझ रहा, कि यह गलत हो रहा है। आतंकवाद को दुनियाभर में रोकने की कसम खाने वाले अमेरिका के पास मुंह छिपाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। मोस्ट वांटेड आतंकी, वहां मंत्री बन बैठे हैं और अमेरिका अपनी मजबूरियां गिनाए जा रहा है। अफगानिस्तान से हटना हमारी मजबूरी थी। …तो गए क्यों थे? अफगानिस्तान में आप के आम गड़े थे क्या?
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