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- कुदरत का कहर
Written by जनसत्ता: देश के कई राज्य इस वक्त कुदरत की मार झेल रहे हैं। कहीं भारी बारिश का कहर है, तो कहीं सूखा पड़ा हुआ है और कहीं भूस्खलन से सड़कें टूट गर्इं हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान में भारी बारिश ने जिंदगियां अस्त-व्यस्त कर दी हैं। तो वहीं पहाड़ी राज्यों में भूस्खलन की समस्या ने आवागमन अवरुद्ध कर दिया है। कई राज्यों की नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं।
हालांकि, इन सबसे मानव समाज ही प्रभावित हो रहा है। अब पृथ्वी पर यह जो नजारा लोगों को देखने को मिल रहा है, यह सब हमारी गलतियों की वजह से है। हम जिस तरह प्रकृति का दोहन करते हैं, उसका परिणाम प्रकृति हमें विपदा के रूप में दे रही है। बिहार और बंगाल के ज्यादातर लोग खेती के लिए मानसून पर निर्भर हैं। इस बार वहां अपेक्षाकृत कम बारिश हुई है। ऐसे में सुखाड़ की गंभीर स्थिति बन गई है, जिससे किसान हलकान हो रहे हैं। अगर आने वाले कुछ दिनों में बारिश नहीं हुई तो पैदावार कम होगी।
इससे अनाज की कीमतें बढ़ जाएंगी। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि कुदरत की इस मार के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार पर्यावरण से संबंधित अनेक योजनाएं चला रही है, लेकिन दूसरी ओर वही सरकार उद्योगिकीकरण के लिए पेड़ कटवा रही है। यह भी सत्य है कि सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा रखी है, लेकिन इसके इतर इससे जुड़े अनेक उद्योग लगवा रही है।
इस तरह देखें तो जलवायु परिवर्तन को लेकर जितनी गंभीरता सरकार की बातों में नजर आती है, वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। इसकी जिम्मेदार सिर्फ सरकार नहीं हैं, हम भी हैं, जो धड़ल्ले से पेड़ों की कटाई कर रहे हैं। इसका एक और सबसे बड़ा कारण बढ़ती जनसंख्या है। जितनी जनसंख्या बढ़ेगी, आवश्यकताएं उतनी ही अधिक होंगी और इसके चलते प्रकृति का दोहन अधिक होगा। बहरहाल, समस्त मानव जाति को इसके लिए आगे आना चाहिए। प्रकृति के दोहन को हर हाल में रोकना चाहिए।
चारों तरफ से महंगाई की मार झेल रहे लोगों को सरकार ने फिर एक जोर का झटका दिया है। आटा, चावल पर जीएसटी लगा कर, इन्हें गरीब की थाली से गायब करने का प्रयास हुआ है। स्वाभाविक ही इसकी भरपूर आलोचना हो रही है। लगातार बढ़ती महंगाई से महिलाओं को घरेलू बजट में अनेक कटौतियां करनी पड़ रही हैं। बमुश्किल वे अपनी गृहस्थी चला पा रही हैं। आजादी के बाद खानेपीने की चीजों पर पहली बार लगा टैक्स, आम जनता के साथ व्यापारियों को भी परेशान कर रहा है।
अन्य मुद्राओं के साथ ही भारतीय रुपए में गिरावट हो रही है, डालर के मुकाबले रुपया अपने अब तक के सबसे निचले स्तर अस्सी रुपए तक पहुंच गया। इस गिरावट का अर्थ है भारतीय मुद्रा का कमजोर होना इसका असर अर्थव्यवस्था से लेकर हर आम आदमी पर पड़ता है। इसका सबसे बड़ा असर विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ेगा। चूंकि हम अमेरिका या अन्य किसी देश से आयात करेंगे तो हमें भुगतान डालर में करना होगा, जिस वजह से खर्च बढ़ेगा। घरेलू स्तर पर महंगाई बढ़ेगी और वस्तुएं और महंगी हो जाएंगी।
देश में महंगाई करीब सात प्रतिशत है, जो कि आरबीआइ के लक्ष्य से काफी अधिक है, इसको काबू करने के लिए आरबीआइ लगातार प्रयास कर रहा है। इस गिरावट की मुख्य वजह कच्चे तेल की ऊंची कीमतें, विदेशों में मजबूत डालर और विदेशी पूंजी का प्रवाह माना जा रहा है। रुपए के गिरने का सबसे अधिक गम विपक्ष को होता है। उसके अनुसार रुपए के गिरने का कारण सिर्फ सरकार होती है।
मगर असल में इस तेजी-मंदी में सरकार की कोई मुख्य भूमिका नहीं होती। वैश्विक परिस्थितियां, वैश्विक अर्थव्यवस्था, ब्याज दरें, आदि इसमें मुख्य मापदंड होते हैं, यह बात विपक्ष को समझने की जरूरत है। रुपए का मूल्यह्रास तब तक जारी रहेगा, जब तक वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति बढ़ती रहेगी और वैश्विक केंद्रीय बैंक दरें नहीं बढ़एंगे।