सम्पादकीय

प्रकृति : गायब होता कस्तूरी मृग, हिमालयी क्षेत्र में घटती संख्या हर कीमत पर रोकनी ही होगी

Neha Dani
30 March 2022 1:52 AM GMT
प्रकृति : गायब होता कस्तूरी मृग, हिमालयी क्षेत्र में घटती संख्या हर कीमत पर रोकनी ही होगी
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इसके बावजूद उनकी संख्या नहीं बढ़ पाई औरआज ये विलुप्त होने के कगार पर हैं।

वह एक मूक प्राणी है, अपनी सुरक्षा के लिए उसके पास सींग तक नहीं- ऊपर से प्रकृति ने उसकी नाभि में खुशबू का ऐसा खजाना दे दिया, जो कई किलोमीटर दूर से उसकी उपस्थिति का अहसास करवा देता है और यही खुशबु उसकी बैरन बन गई है। कस्तूरी मृग हिमालयी क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश की चम्बा घाटी से लेकर सिक्किम तक पाए जाते हैं। कस्तूरी केवल नर मृग में ही पाई जाती है।

कस्तूरी के औषधीय व प्रसाधन महत्व के कारण बड़े पैमाने पर इन मृगों का अवैध शिकार हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप ये विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं। आईयूसीएन यानी इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर द्वारा जारी लाल सूची या रेड लिस्ट में दर्ज कर इसे दुर्लभ प्राणी माना गया है। कस्तूरी मृग उत्तराखंड का राजकीय पशु है। कस्तूरी मृग के प्राकृतिक संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ के सहयोग से वर्ष 1970 के दशक में उत्तराखंड (तब यह उत्तर प्रदेश का हिस्सा था) के केदारनाथ अभयारण्य में कस्तूरी मृग परियोजना की शुरुआत की गई।
कस्तूरी मृग के लिए हिमाचल प्रदेश का शिकारी देवी अभयारण्य तथा उत्तराखंड का बद्रीनाथ अभयारण्य प्रसिद्ध है। धरती पर कस्तूरी मृग की चार प्रजातियां पाई जाती हैं, ये चारों प्रजातियां रूस, चीन, नेपाल सीमा और भारत के दक्षिण हिमालय में पाई जाती हैं। भारत में गढ़वाल व कुमाऊं क्षेत्र में यह बड़ी संख्या में मिलते हैं। आशंका है कि आने वाले पांच सालों में बगैर सींग वाला एक छोटा-सा हिरण भारत में शायद एक भी न बचे। फिलहाल पाकिस्तान और अफगानिस्तान में यह पूरी तरह समाप्त हो चुका है।
यह भले ही एक सामान्य हिरन या मृग जैसा दिखता हो, लेकिन यह कई मायनों में अन्य हिरणों से बहुत अलग है। इसका जीवन चक्र, खानपान व शारीरिक विशेषताएं सामान्य हिरन से बहुत अलग हैं। जैसे सभी हिरन जहां झुंड में रहते हैं, वहीं कस्तूरी मृग एकांतप्रिय है। यह कुछ खास किस्म की जड़ी बूटियां, पत्ते व घास ही खाता है। ऊंचे बर्फीले पहाड़ों पर पाए जाने वाले इस मृग की केवल नर प्रजाति की नाभि के निकट एक नींबू के आकार की गांठ होती है, जिसमें खुशबूदार कस्तूरी विकसित होती है।
कुदरत ने जानवर को जनन प्रक्रिया को सामान्य बनाए रखने के लिए खुशबू का उपहार दिया, लेकिन यही खुशबू इसके लिए मौत का पैगाम लेकर आती है। इस विलक्षण जानवर की जान की दुश्मन बन गई खुशबू का इस्तेमाल कुछ दवाएं और परफ्यूम बनाने में होता है। यह मृग भारत में हिमालय के अलावा कश्मीर और सिक्किम में भी मिलता है। कस्तूरी का औषधि उद्योग में प्रयोग दमा, मिर्गी तथा हृदय संबंधी रोग की दवाई बनाने में किया जाता है। कस्तूरी विश्व का बेशकीमती उत्पाद है।
इत्र का परंपरागत व्यवसाय करने वाला फ्रांस इसका प्रमुख खरीदार है। उत्तराखंड राज्य के केदारनाथ, फूलों की घाटी, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी में 3,600 से 4,400 मीटर की ऊंचाई पर इनकी थोड़ी-सी आबादी बची हुई है। राज्य में 2005 तक 279 कस्तूरी मृग पाए गए थे। बेरोकटोक शिकार के कारण इस भोले-भाले जीव की संख्या तेजी से घट रही है। इंडियन वाइल्डलाइफ बोर्ड ने 1952 में ही देश के उन 12 वन्य प्राणियों में कस्तूरी मृग को प्रमुख रूप से शामिल किया था, जिनकी नस्ल धीरे-धीरे समाप्त हो रही है।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत, कस्तूरी मृग को मारना दंडनीय अपराध माना गया है। मादा कस्तूरी मृग की गर्भधारण अवधि छह माह की होती है। कस्तूरी मृग संरक्षण के मकसद से उत्तर प्रदेश सरकार ने गढ़वाल हिमालय में 9,672 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इस वर्ग के संरक्षण का राष्ट्रीय पार्क वर्ष 1972 में शुरू किया गया था। ये दोनों क्षेत्र चमोली जनपद में विश्व विख्यात बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम के ठीक बीच में है। गोपेश्वर से 32 किलोमीटर दूर स्थित काछोला खर्क कस्तूरी मृग के प्रजनन का स्थल बनाया गया। इसके बावजूद उनकी संख्या नहीं बढ़ पाई औरआज ये विलुप्त होने के कगार पर हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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