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अखिलेश आर्येंदु: वैज्ञानिकों का साफ मानना है कि दुनियाभर में बढ़ते पर्यावरण संकट को कम करने में जैविक या प्राकृतिक खेती एक उपचारक की भूमिका निभा सकती है। गौरतलब है कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में प्राकृतिक खेती बड़े पैमाने पर अपनाई जा रही है। धीरे-धीरे दक्षिण, मध्य भारत और उत्तर भारत में भी यह किसानों में लोकप्रिय हो रही है।
केंद्र सरकार भी इसे बढ़ावा देने में लगी है। लेकिन जिस गति से इसे बढ़ना चाहिए, उस गति से इसे बढ़ाने में कामयाबी मिल नहीं रही है। इसके लिए और भी ठोस प्रयास करने की जरूरत है। कुछ सालों से केंद्र सरकार ने नीम परत वाली यूरिया को बढ़ावा देने के लिए तमाम कवायदें शुरू की हैं। इसकी खूबी को लेकर केंद्र सरकार प्रचार भी खूब करती रही है। पर नीम यूरिया से क्या खाद्यान्नों में बढ़ रहे जहरीले तत्त्वों में कमी आई है?
गौरतलब है भारत में रासायनिक खाद कारखानों में नीम की परत वाली यूरिया बनाई जा रही है, लेकिन फिर भी रासायनिक खादों के इस्तेमाल में कोई खास कमी नहीं आई है, बल्कि रासायनिक खादें पहले से ज्यादा महंगी हुई हैं।
पिछले कुछ सालों में खेती की लागत भी बढ़ी है। ऐसे में प्रगतिशील किसानों ने प्राकृतिक खेती का विकल्प अपनाना शुरू कर दिया है। अब किसानों ने प्राकृतिक या जैविक खेती को एक सशक्त विकल्प के रूप में अपना लिया है।
गौरतलब है कि जैविक या प्राकृतिक खेती की तरफ भारतीय किसानों का रुझान लगातार बढ़ रहा है। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए वे सुविधाएं मुहैया नहीं कराई हैं जिससे किसानों को जैविक खेती करने में सहूलियत होती। इसके बावजूद जैविक खेती आम किसानों की पसंद बनती जा रही है।
यदि केंद्र और राज्य सरकारें बीज, जैविक खाद, पानी, किसानी के यंत्र और बिजली की किल्लत को दूर कर दें तो किसान जैविक खेती को अपनी पहली पसंद बनाने में शायद न हिचकें।
प्राकृतिक खेती को लेकर अनुसंधान भी काफी हो रहे हैं। किसान नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। इससे कृषि वैज्ञानिक भी प्राकृतिक खेती को लेकर अधिक उत्साहित हैं। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि जैविक या प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से पर्यावरण, खाद्यान्न, भूमि, इंसान की सेहत, पानी की शुद्धता को और बेहतर बनाने में मदद मिलती है।
आमतौर पर कृषि व बागवानी में बेहतर उपज लेने और बीमारियों के खात्मा के लिए फसलों में कीटनाशकों का इस्तेमाल जरूरी माना जाता है। लेकिन देशी तरीके से की जाने वाली खेती और बागवानी ने इस धारणा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। ये कीटनाशक बेहतर उपज के लिए या बीमारियों को खत्म करने के लिए भले जरूरी माने जा रहे हों, लेकिन इससे कई तरह की समस्याएं और जटिलताएं पैदा हो गई हैं। ये बीमारियों की वजह बन गए हैं।
गौरतलब है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली बीमारियों और समस्याओं की जानकारी न होने की वजह से किसान इनका इस्तेमाल काफी ज्यादा करने लगे हैं। इसका असर यह हुआ है कि ऐसी उपज का इस्तेमाल करने भी गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। बावजूद इसके किसान इनके इस्तेमाल से छुटकारा नहीं पा रहा है।
केंद्र और राज्य सरकारों के कृषि विभाग कीटनाशकों के इस्तेमाल को जरूरी मानते हैं। जब से देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा बढ़ा है तब से खेती और बागवानी के लिए कीटनाशकों की विदेशी दवाएं ज्यादा इस्तेमाल होने लगी हैं। इसकी वजह से किसान और उसका परिवार ज्यादा मुश्किलों में घिर गया है।
वहीं दूसरी तरफ प्राकृतिक खेती से सिक्किम में जिस गति से पर्यावरण को मदद मिली है, उससे यह साफ हो गया है कि यदि भारत का प्रत्येक किसान प्राकृतिक खेती को अपना ले तो भारतीय समाज की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है।
गौरतलब है कि कृषि वैज्ञानिक वर्षों से कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली समस्याओं के प्रति आगाह करते आ रहे हैं। लेकिन न तो इस पर केंद्र सरकार गौर कर रही है, न ही राज्य सरकारें। इसका नतीजा यह रहा है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली तमाम गंभीर बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। कीटनाशकों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल एंडोसल्फान का किया जाता है।
इसका छिड़काव सिर्फ फसलों पर ही नहीं, सब्जियों और फलों पर भी किया जाता है। पर्यावरणविदों के मुताबिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पर्यावरण पर जबर्दस्त असर पड़ रहा है। वायु प्रदूषण की एक वजह कीटनाशकों का बहुतायत में इस्तेमाल भी है। देखा जाए तो बच्चों की कई समस्याएं कीटनाशकों के कारण ही पैदा हो रही हैं। कैंसर, त्वचा रोग, आंख, दिल और पाचन संबंधी कई समस्याओं की वजह कीटनाशक ही हैं।
देखने की बात यह है कि जिन कीटनाशकों को अमेरिका और अन्य विकसित देशों में प्रतिबंधित किया जा चुका है, उन्हें भारत में धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि इसे लेकर पर्यावरण और कृषि से जुड़ी तमाम संस्थाएं सरकारों को इसके गलत असर के बारे में आगाह कर चुकी हैं।
अब जबकि कीटनाशकों के इस्तेमाल से गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना भी बेहतर खेती करके अच्छी उपज लेने के प्रयोग भी देश के कई हिस्सों में किसान कर रहे हैं। सिक्किम, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के किसानों ने इस दिशा में सफल प्रयोग किए हैं। इसमें कीटनाशकों की जगह तीन दिन पुराने मट्ठे का छिड़काव और सूखी नीम की पत्तियों का इस्तेमाल बहुत कारगार रहा है।
आंध्र प्रदेश के उन्नीस जिलों में किसानों ने कीटनाशकों के बिना सफल खेती करके और पैदावार पहले से कहीं ज्यादा कर यह साबित कर दिया कि कीटनाशकों के इस्तेमाल बंद किया जा सकता है। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति में तो बढ़़ोत्तरी होती ही है, पर्यावरण की हिफाजत करने में भी मदद मिलती है। इस तरह के निरापद प्रयोग से अन्न, सब्जी और फलों से किसी को कोई बीमारी भी नहीं होती।
ज्यादातर कृषि वैज्ञानिक अब जैविक खेती को किसान और किसानी के लिए फायदेमंद और निरापद मानने लगे हैं। उनका मानना है कि जैविक खेती से ही खेती घाटे से निकलकर फायदे में आ सकती है। इससे जहां गांवों से शहरों की ओर बढ़ रहा पलायन कम होगा, वहीं रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से बढ़ रही समस्याएं भी कम होंगी।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कीटनाशक बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां विदेशी यानी बहुराष्ट्रीय हैं। स्वदेशी तरीके से की जा रही खेती से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कीटनाशकों की बिक्री घटती है। इससे उनके हित प्रभावित होते हैं। लेकिन जिस तरह से पूर्वी, उत्तरी व दक्षिणी राज्यों के किसानों ने बड़े पैमाने पर स्वदेशी तरीके से बिना कीटनाशकों के सफल खेती करके एक मिसाल कायम की है, उसे देशभर के किसानों को अपनाना चाहिए।
इससे उन्हें शुद्ध अन्न, सब्जी, फल ही नहीं मिलेंगे, बल्कि पर्यावरण की रक्षा भी हो सकेगी और साथ ही महंगे कीटनाशकों से भी छुटकारा मिल सकेगा। बदलते ऋतु चक्र को देखते हुए उत्तर और पूर्वी भारत के किसानों को भी कीटनाशकों से रहित खेती और बागवानी के इस प्रयोग को अपना कर देखने की जरूरत है। इसके लिए किसानों के हित चाहने वाली संस्थाओं को ही आगे आना होगा।