सम्पादकीय

नाटो की प्रासंगिकता का संकट

Subhi
29 March 2022 4:04 AM GMT
नाटो की प्रासंगिकता का संकट
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अभी तक नाटो और अमेरिका सैन्य संतुलन कायम करने के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम देते रहे हैं। लेकिन यूक्रेन पर हमले के बाद रूस की परमाणु युद्ध की धमकी के आगे नाटो बेबस नजर आया है।

ब्रह्मदीप अलूने; अभी तक नाटो और अमेरिका सैन्य संतुलन कायम करने के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम देते रहे हैं। लेकिन यूक्रेन पर हमले के बाद रूस की परमाणु युद्ध की धमकी के आगे नाटो बेबस नजर आया है। यूक्रेन में नाटो की रणनीतिक प्रतिकार से बचने की नीति से वैश्विक शक्ति संतुलन को लेकर असमंजस बढ़ गया है।

यूरोप और अमेरिकी महाद्वीप को संतुलित और नियंत्रित रखने की उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की नीति पस्त पड़ चुकी है। चीन की आर्थिक रणनीति और रूस की सामरिक आक्रामकता के सामने नाटो बौना साबित होने लगा है। लातिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में चीन का सहायता कूटनीति का अभियान जोरों पर है।

ब्राजील, मेक्सिको और कोलंबिया जैसे देश चीन से आर्थिक साझेदारी करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, तो क्यूबा, निकारागुआ और वेनेजुएला जैसे देश भी अमेरिका को ठेंगा दिखाते हुए चीन से व्यापक आर्थिक समझौते कर रहे हैं। चीन इन देशों के क्षेत्रीय संगठन- कम्युनिटी आफ लैटिन अमेरिकन एंड कैरेबियन स्टेट्स (सीईएलएसी) के साथ अपने रिश्तों को उंचाई पर ले जा रहा है और यह सब अर्जेंटीना के नेतृत्व में हो रहा है।

दरअसल, लातिन अमेरिका और कैरेबियाई देश चीन की बेल्ट रोड योजना का अहम हिस्सा बन चुके हैं। वेनेजुएला और क्यूबा अमेरिका विरोध के चलते चीन के समर्थन में खड़े हैं। अल सल्वाडोर और होंडुरास जैसे देशों में भी चीन का दबदबा बढ़ता जा रहा है। पश्चिम यूरोप में भी चीन तेजी से पैर जमा रहा है। चीन का नया सिल्क मार्ग पांच महाद्वीपों में फैला बुनियादी परियोजनाओं का एक महत्त्वाकांक्षी नेटवर्क है, जिसके सहारे वह अमेरिकी महाद्वीप और नाटो के सहयोगी देशों के साथ आर्थिक साझेदारी बढ़ाने में लगा है।

मध्य-पूर्व के जिन यूरोपीय देशों के साथ चीन व्यापक रणनीति के तहत काम कर रहा है, उनमें अल्बानिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, बुल्गारिया, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, एस्तोनिया, ग्रीस, हंगरी, लात्विया, उत्तरी मेसेडोनिया, मोंटेनेग्रो, पोलैंड, रोमानिया, सर्बिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया शामिल हैं। इसमें कई देश नाटो सैन्य संगठन का हिस्सा हैं, जिसकी स्थापना ही साम्यवाद को रोकने के लिए हुई थी।

यूरोप को चारों ओर से घेर लेने की नीति के तहत चीन बाल्कन देशों के साथ सहयोग को लेकर लगातार आगे बढ़ रहा है। वह यूरोप के कई बंदरगाहों में भी दिलचस्पी दिखा रहा है। ग्रीस, तुर्की सहित दक्षिण यूरोप के कई देशों के बंदरगाहों में उसकी बड़ी हिस्सेदारी है। पश्चिमी बाल्कन देशों में चीनी निवेश काफी बढ़ गया है और इन देशों पर चीन का कर्ज बढ़ता जा रहा है। चीन के इस बढ़ते प्रभाव से अमेरिका और यूरोप की नींद उड़ना लाजिमी है।

चीन के आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग का असर कूटनीतिक रूप से भी दिखने लगा है। अमेरिका वीगर मुसलमानों के अधिकारों को लेकर मुखर है, वहीं बाल्कन देश चीन की आलोचना के किसी भी प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। बाल्कन प्रायद्वीप दक्षिण-पूर्वी यूरोप का एक बड़ा क्षेत्र है और यहां चीन की कूटनीतिक बढ़त रणनीतिक बढ़त नहीं बन जाए, इसे लेकर अमेरिका और नाटो आशंकित हैं। बाल्कन दक्षिणी यूरोप का सबसे पूर्वी प्रायद्वीप है और यह तीन ओर से समुद्र से घिरा है। इसके पूर्व में काला सागर, ईजियन सागर, दक्षिण में भूमध्यसागर, पश्चिम में इयोनियन सागर और एड्रियाटिक सागर हैं। चीन का इस क्षेत्र में बढ़ा रुतबा अमेरिका और नाटो पर रणनीतिक बढ़त लेता हुआ दिखाई देता है।

यूक्रेन को लेकर रूस की आक्रामकता और इस पर वैश्विक दबाव का काम न करना भी दुनिया के सबसे बड़े सैन्य संगठन नाटो की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप को एक तानाशाही दखलंदाजी माना जाता है, जो एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के मामलों को पलटने के लिए करता है। पूर्वी यूरोप के एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैंड और रोमानिया में अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के सैनिक तैनात हैं।

इसके साथ ही नाटो ने बाल्टिक देशों और पूर्वी यूरोप में हवाई निगरानी भी बढ़ाई है, जिससे आकाश से भी रूस पर नजर रखी जा सके। यूक्रेन पर हमले के बाद यह साफ हो गया कि रूस पर दबाव बनाने की नाटो और अमेरिका की यह योजना कारगर नहीं हो सकी। यह स्थिति नाटो और अमेरिका को परेशान करने वाली है।

साल 2008 में नाटो के बुखारेस्ट सम्मेलन में यूक्रेन और जार्जिया को सदस्य बनाने का समर्थन किया गया था और इस बात पर सहमति जताई जताई थी कि ये देश नाटो के सदस्य बन जाएंगे। लेकिन रूस ने अमेरिका के पूर्व की ओर नाटो क्षेत्र के विस्तार के विकल्प को खारिज कर दिया। नाटो की असल चुनौती यही से बढ़ गई। दुनिया के सबसे बड़े सैन्य संगठन नाटो का प्रमुख लक्ष्य साम्यवादी सोवियत संघ के कूटनीतिक, राजनीतिक और सामरिक प्रभाव को सीमित करना था, जिसमें उसने सफलता भी पाई।

लेकिन पिछले दो दशकों में रूस में पुतिन के प्रभाव और चीन की सहायता कूटनीति से वैश्विक परिदृश्य पूरी बदल गया है। 2008 में जार्जिया और यूक्रेन को अपने गठबंधन में शामिल करने के नाटो के इरादे की घोषणा के बाद रूस ने जार्जिया पर आक्रमण किया और उसके कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद 2014 में क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। इस समय भी यूक्रेन रूस के हमलों से तबाह हो चुका है।

हर किसी के लिए दरवाजे खुले रखने की नाटो की नीति कमजोर पड़ चुकी है। वह यूक्रेन के मामले में चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया। यूक्रेन नाटो में शामिल होने को लेकर एक तय समयसीमा और संभावना स्पष्ट करने की मांग करता रहा है। पर नाटो रूस के दबाव के आगे बेबस हो गया। अब तो यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की भी यह साफ कह चुके हैं कि नाटो रूस से डर गया।

यूक्रेन को लेकर अमेरिकी और नाटो की नीति का असर दुनिया के कई क्षेत्रों में रणनीतिक रूप से पड़ सकता है। नाटो और अमेरिका के विरोध को नजरअंदाज कर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पूर्वी यूक्रेन के पृथकतावादी विद्रोही इलाके दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र राज्य की मान्यता दे दी। रूस आधिकारिक से रूप यहां दाखिल हो गया और आश्चर्य नहीं कि इसके रूस में विलय की जल्द घोषणा कर दी जाए।

ऐसा भी नहीं है कि पुतिन यूक्रेन तक ही सीमित रहेंगे। हो सकता है पुतिन आगे चल कर पोलैंड, बुल्गारिया और हंगरी में भी यूक्रेन जैसी ही सैन्य कार्रवाई कर बैठें। एशिया के कई देश यूक्रेन संकट में रूस का विरोध करने से बचे हैं। यह स्थिति अमेरिका और नाटो को असहज करने वाली है। अफगानिस्तान में तालिबान का सत्ता में लौटना और नाटो सेनाओं द्वारा उसे अस्थिर छोड़ जाने से इस सैन्य संगठन की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है।

शक्ति संतुलन को लेकर कोई भी स्पष्ट विचार नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र केवल ऐसे संतुलन में विश्वास रखता है जो उसके पक्ष में हो और यहीं से दूसरे पक्ष में असंतुलन स्थापित हो जाता है। अभी तक नाटो और अमेरिका सैन्य संतुलन कायम करने के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम देते रहे हैं। लेकिन यूक्रेन पर हमले के बाद रूस की परमाणु युद्ध की धमकी के आगे नाटो बेबस नजर आया है। यूक्रेन में नाटो की रणनीतिक प्रतिकार से बचने की नीति से वैश्विक शक्ति संतुलन को लेकर असमंजस बढ़ गया है।

चीन और रूस को रोकने के लिए नाटो और अमेरिका के सामने आर्थिक और सामरिक मोर्चों पर कई चुनौतियां हैं। यूरोप और अमेरिका महाद्वीप में चीन का आर्थिक प्रभाव कैसे कम किया जाए, इसे लेकर कोई प्रभावी योजना नाटो के पास फिलहाल नहीं है। वहीं रूस के परमाणु हमलों से बचने का यूरोप के पास कोई सुरक्षा कवच भी फिलहाल नहीं है। यह पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक, नई साम्यवादी, आर्थिक और सामरिक चुनौती है जिसका सामना करने का सामर्थ्य अमेरिका और नाटो के पास फिलहाल नजर नहीं आती।


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