सम्पादकीय

क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय विपक्ष सिर्फ बिखराव का शिकार है या किसी अज्ञात डर का !

Rani Sahu
28 April 2022 11:25 AM GMT
क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय विपक्ष सिर्फ बिखराव का शिकार है या किसी अज्ञात डर का !
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यह विपक्ष का बिखराव भर है या उसके भीतर बैठा कोई अज्ञात डर, जिस कारण भाजपा का विकल्प बनने के पहले ही तीसरे मोर्चे की पहल दम तोड़ देती है

Faisal Anurag

यह विपक्ष का बिखराव भर है या उसके भीतर बैठा कोई अज्ञात डर, जिस कारण भाजपा का विकल्प बनने के पहले ही तीसरे मोर्चे की पहल दम तोड़ देती है. खास कर क्षेत्रीय और छोटे दलों के नेताओं के भीतर केंद्रीय एजेंसियों के डर की कहानी नयी नहीं है. यह डर का ही कमाल है कि केंद्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी बगैर किसी चुनौती के 2024 की तैयारी में व्यस्त है और विपक्ष बगैर युद्ध किए ही पराजित मुद्रा में दिख रहा है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का ताजा बयान इसी की बानगी जैसा है. राव की बदली भाषा बता रही है कि जिस तीसरे मोर्चे के लिए वे पिछले कुछ महीनों से भागदौड़ कर रहे थे, वह एक बुरा विचार था.
एक समारोह में राव ने कहा कि किसी भी सरकार को बदल कर दूसरी सरकार बना लेने का आह्वान एक बुरा विचार है. राव ने कम्युनिस्ट पार्टी के किसी नेता का हवाला देते हुए कहा कि केंद्र सरकार को उखाड़ कर तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के लिए पहल करने का उनका सुझाव एक बुरा विचार है. किसी भी सरकार के बदलने की बात नहीं करनी चाहिए, यह हमारा काम नहीं है. राव की बातों के निहितार्थ बताते हैं कि छोटे और क्षेत्रीय दलों के भीतर किस तरह भय व्याप्त है, जो केंद्र सरकार के खिलाफ किसी राजनीतिक गठबंधन तक के लिए कदम उठाने से भी हिचकते हैं.
ममता बनर्जी या उद्धव ठाकरे अपवाद जरूर दिखते हैं और अरविंद केजरीवाल भी अपनी पार्टी की ताकत छोटे राज्यों में बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं. लेकिन केजरीवाल केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने से अक्सर परहेज करते नजर आते हैं. जहांगीरपुरी की घटना पर उनकी चुप्पी सर्वविदित है. हालांकि उनके दो सांसदों ने बुलडोजर राजनीति पर सवाल जरूर खड़े किए, लेकिन केजरीवाल न तो पिछले साल दिल्ली के दंगों के समय कुछ बोलना जरूरी समझा और न ही शाहीनबाग के मामले में. पंजाब का चुनाव जीत लेने के बाद अब उनकी निगाह गुजरात और हिमाचल प्रदेश पर लगी हुई है.
तीसरे मोर्चे के लिए एक और गंभीर कोशिश करती ममता बनर्जी पिछले साल नजर आयी थीं. केद्र सरकार पर हमला करने से वे चुकती नहीं हैं. जिस तरह बंगाल का चुनाव उन्होंने लड़ा, उससे उनकी अखिल भारतीय छवि भी बनी. बावजूद इसके भाजपा का विकल्प तैयार करने के बजाय उनका मकसद कांग्रेस को कमजोर करने का रहा है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जहां वे गोवा में कांग्रेस को ही चुनौती देती दिखीं, वहीं उत्तर प्रदेश में अखिलेश के पक्ष में.
ममता बनर्जी ने जिस प्रशांत किशोर के माध्यम से तीसरा मोर्चा बनाने की गतिविधि को तेज किया था, वही पीके अब केसीआर यानी तेलंगाना के मुख्यमंत्री के साथ हो लिए हैं. इस बीच कांग्रेस प्रकरण में पीके की भूमिका को लेकर अनेक सवाल उठे हैं. जिस तरह उन्होंने कांग्रेस में निर्णायक अधिकार की शर्त पर शामिल होने का प्रस्ताव रखा था, उसे कांग्रेस ने खारिज कर दिया. कांग्रेस रणनीति बनाने में उनका सहयोग लेने के पक्ष में तो थी, लेकिन पार्टी में नबंर दो बना कर तमाम अधिकार दिए जाने के पक्ष में नहीं. पीके के टीआरएस के साथ सहमति बनने के साथ ही राव की बदली भाषा के राजनैतिक अर्थ बहुत कुछ स्पष्ट कर देते हैं.
समाजवादी पार्टी हो या फिर बहुजन समाज पार्टी, दोनों की खामोशी और हताशा बता रही है कि वे अगले चुनाव में भी बीजेपी का मुकाबला करने का साहस और कौशल शायद ही दिखा पाएं. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने जरूर वाम पार्टियों के साथ मिल कर उपचुनावों और विधान परिषद के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया है. बिहार में मुकेश सहनी मंत्री पद से हटाए जाने के बावजूद नीतीश मोह में ग्रस्त दिख रहे हैं और चिराग पासवान भविष्य को ले दुविधा से बाहर आते नहीं दिख रहे.
एनसीपी के शरद पवार और शिवसेना के उद्धव ठाकरे कांग्रेस को गैर भाजपा गठबंधन के लिए जरूरी मानते हैं. शरद पवार की राजनीति को लेकर यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि वे कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के लिए हामी भरेंगे या नहीं. इस समय कांग्रेस के साथ मजबूती से केवल डीएमके ही खड़ा दिखता है. वाम पार्टियां भाजपा के खिलाफ हैं, लेकिन कांग्रेस को लेकर उनके मन में अनेक सवाल हैं. क्षेत्रीय दलों से बार-बार उम्मीद टूटने के बाद भी वाम नेता ऐसी स्थिति में नहीं है कि वे किसी गैर भाजपा गठबंधन की दिशा में सिरीयस पहल कर सकें. इस समय तो हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा कोई वाम नेता है भी नहीं, जिनका असर तमाम गैर भाजपा दलों पर था.


Rani Sahu

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