सम्पादकीय

राष्ट्रीय किसान दिवस: समाज किसानों की सोचे और किसान समाज की

Rani Sahu
23 Dec 2021 4:04 PM GMT
राष्ट्रीय किसान दिवस: समाज किसानों की सोचे और किसान समाज की
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भले ही किसान आंदोलन को वापस ले लिया गया हो, लेकिन देश में किसानों के सवाल अभी बाकी हैं

भले ही किसान आंदोलन को वापस ले लिया गया हो, लेकिन देश में किसानों के सवाल अभी बाकी हैं. ऐसा नहीं था कि किसान आंदोलन के पहले खेती किसानी की समस्याएं नहीं थीं, और ऐसा भी नहीं है कि आंदोलनकारी किसानों की मांगें मान लिए जाने के बाद भी एकाएक समस्याएं हल हो गई हों, जरूरत इस बात की है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ और देश में बहुसंख्यक आबादी का पेट भरने वाले इस क्षेत्र पर लगातार मिलजुलकर बात हो और निरंतर संवाद हो.

जरुरत इस बात की है कि किसानों की असली समस्याओं को पहचाना जाए और उन्हें दूर करने की भरसक कोशिशें भी हों, कोविड19 की परिस्थितियों ने देश की तरक्की और विकास को बहुत गहरा आघात पहुंचाया है, ऐसे में किसानों को दोगुनी आय के वायदे को पूरा करने या न कर पाने के विषय पर ठीक—ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता, पर कम से कम देश के छोटे, मध्यम वर्ग के किसानों के लिए बेहतर परिस्थितियां बनाई जा सकती हैं, जिसमें वह अपना काम निश्चिंत होकर कर सकें.
किसानों को भी इस बात पर सोचना चाहिए कि आज जिस तरह से रासायनिक खेती के जरिए अनाज उगाकर वह लोगों के पेट तक पहुंचा रहे हैं, क्या वह देश के लिए उचित है ? यह सच बात है कि आज वह इस मुकाम तक आ गए हैं जहां रासायनिक खेती का विकल्प अपनाया जाया उतना आसान नहीं हैं लेकिन उन्हें भी तो सोचना चाहिए कि यदि फसल दवाई खाएगी तो फसल खाने वाले को भी दवाई खाना पड़ेगा, क्या यह अक्लमंदी नहीं है, और यह भी सोचना चाहिए कि क्या वह अपनी परंपरागत खेती की तरफ वापस लौट सकते हैं, जहां वे कम लागत में बेहतर फसल उगा लिया करते थे.
इस साल भी रबी फसल का सबसे बड़ा संकट खाद बीज का है. इसे जानने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरुरत नहीं है कि किस क्षेत्र में कितने बीज या खाद की जरुरत किसानों को होती है. साल दर साल इसका डेटा विभागों के पास होता है, जिसके आधार पर ऐसी तैयारी की जा सकती है, जिसमें किसानों को बिना किसी परेशानी के खाद—बीज उपलब्ध हो सकता हो, लेकिन इस साल भी हालात यह हैं अब रबी फसल के लिए किसानों को खाद की व्यवस्था करने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा है.
किसान रात—रात भर लाइन में लगा है, सही समय पर खाद नहीं मिलने से बोवनी में देरी हुई है, या उन्हें तमाम नियम—कायदे कानून, प्रशासन होने के बावजूद ज्यादा पैसे देकर खाद खरीदना पड़ा है. यह कोई एक जगह की बात नहीं हैं, यदि आप किसी भी अखबार के जिला संस्करणों की खबरों पर गौर करेंगे तो यह हर दिन की कहानी है.
व्यवस्था करने या कालाबाजारी करने पर एक्शन लेने की बातें सिर्फ नेताओं के भाषणों तक सीमित रह जाती हैं, और कालाबाजारी का यह खेल किसी से भी छिपा नहीं है. हैरानी की बात यह है कि एक तरफ किसानों को सम्मान निधि राशि देकर उन्हें अन्नदाता शब्द से विभूषित किया जाता है, और दूसरी तरफ रात—रात भर उन्हें खाद के लिए लाइन में खड़े होने की सजा भी मिलती है. क्या समाज और सरकारें वास्तव में ऐसी व्यवस्थाएं बना सकती हैं, जहां कि देश का आम किसान खुद को इस देश का सम्मानित नागरिक महसूस कर सके.
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में गुजरात में जैविक खेती पर आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि देश में जैविक खेती को अपनाए जाने की जरूरत है, यह जहां पर लोगों की सेहत से जुड़ा मसला भी है तो दूसरी तरफ मिट्टी का सवाल भी है. यह सही बात है कि रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों ने मिट्टी के साथ—साथ पर्यावरण का भी सत्यानाश किया है.
हरित क्रांति के बाद कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने में इन्हीं रासायनिक उर्वरकों का भारी योगदान भले ही रहा हो, लेकिन इस प्रक्रिया ने धरती को उस अवस्था में पहुंचा दिया है जहां कि बिना खाद डाले कुछ भी पैदा करना असंभव हो गया है, लेकिन इसमे किसानों से ज्यादा उन नीतियों का योगदान रहा है, जिनसे आज यह स्थिति बन चुकी है. ऐसे मे अब जरूरी हो गया है कि किसान उत्पादन के साथ अपनी मिट्टी की फिक्र भी करे,? यानी किसान को पर्यावरण की भी उतनी चिंता करनी होगी, जितना वह खुद की करता है ! लेकिन कैसे
क्या यह अकेले किसान के बस की बात है या केवल सरकार के नीतियां बनाए जाने से हो जाएगा ? बिलकुल नहीं. इसके लिए जरूरी होगा कि किसानों और किसानी को एक बेहतर सपोर्ट सिस्टम मिले, क्योंकि रासायनिक खेती रातों रात जैविक खेती में तब्दील नहीं हो जाएगी, और यह भी सब जानते ही हैं कि जब किसान रासायनिक खेती से जैविक खेती की तरफ जाता है तो शुरुआती सालों में उत्पादन में भी गिरावट होती है, इस गिरावट से होने वाले आर्थिक नुकसान के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इस पर भी सोचना होगा.
और इस सबके लिए जरूरी होगा कि किसानों को इसके लिए बाजार कैसे उपलब्ध हो पाता है. अभी समस्या यह है कि जो किसान कोशिशें करके जहरमुक्त खेती करते हैं, और अच्छे उत्पाद उगाते हैं उन्हें सही मार्केट और सही दाम मिलने में भी बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है. इस समस्या को कैसे दूर किया जाएगा. जैविक खेती के प्रमाणपत्र की अपनी मुश्किलें हैं. ऐसे कई किसान हैं जिनके लिए यह प्रक्रिया महंगी और असुविधाजनक है. क्या जैविक खेती के प्रमाणीकरण को आसान और सस्ता बनाया जा सकता है. यदि ऐसा किया गया तभी इस खेती के जरिए बेहतर सेहत का रास्ता आसान होगा. इसलिए यह वह वक्त है जब किसान को समाज की और समाज को किसानों की फिक्र करनी होगी.
राकेश कुमार मालवीय
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